गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16तुंबरु के घर के आसपास राग–रागनियों की भीड़ लगी थी; नारद जी ने उनसे उनका परिचय पूछा; वे लोग कहने लगे कि ‘क्या बतायें, एक नारद नामक कोई मूर्ख गायनाचार्य बनकर ऊटपटांग गाता है जिससे हम अपंग हो जाते हैं; यहाँ इसलिये खड़ी हैं कि जब तुंबरु महाशय गायेंगे तो हमारे अपंग हुए अंग पुनः स्वस्थ हो जायेंगे।’ ऐसा उत्तर सुन नारदजी अत्यन्त लज्जित हो लौट पड़े। अन्ततोगत्वा महर्षि नारद ने क्रमशः श्रीकृष्ण की 16108 रानियों, अष्ट पटरानियों एवं स्वयं श्री भगवान् एवं राधारानी से संगीत की शिक्षा ग्रहण की और हम लोकोत्तर संगीत के ज्ञान से ब्रह्मानन्द को प्राप्त हुए। ब्रह्मानन्द प्राप्त होने पर नारदजी में तुंबरु के प्रति स्पर्धाभाव ही समाप्त हो गया। तात्पर्य कि संगीत महामहिम हैं; वह ब्रह्म-सहोदर कहा जाता है। श्रीधरस्वामी लिखते हैं, ‘गीतगतीर्वा वेति इति गतिविद्, तस्य विदः।’ भगवान् श्रीकृष्ण गीत की गति-विधियों को जानने वाले हैं, अतः ‘गतिविद्’ हैं। जैसे वशीकरण अथवा मोहन-मन्त्र के वशीभूत हो प्राणी बलात् उस ओर चल पड़ता है, वैसे ही हम भी आपके स्वभाव को जानते हुए भी आपके उद्गीतरूप मोहन-मन्त्र से आकृष्ट हो बलात् यहाँ तक आपके सान्निध्य में खींची चली आई हैं। कान्तादिकों द्वारा अवरुद्ध कर लिये जाने पर कृष्ण-ध्यान में रत ही शरीर- त्याग कर देने वाली गोपांगनाएँ कह रही हैं, ‘अतिविंलध्य तेऽन्त्यच्युतागताः’ हे अच्युत! आप गतिविद् हैं; ‘अस्मांक दशमीं दशं गति वेत्ति इति गतिविद्।’ आप हमारी दशमीं दशा को जानते हैं; साधारण से साधारण त्याग करने पर भी त्यागी का सम्मान होता है; गृह-कुटुम्ब, पति-पुत्र, सुख-ऐश्वर्यादिकों का त्याग भी महत्त्वातिशायी होता है; हम लोगों ने तो अपने प्राणों का ही त्याग कर दिया है; आपके विप्रयोग-जन्य तीव्रताप से हम दसवीं दशा को, मृत्यु को प्राप्त हो रही हैं। चक्रवर्ती महाराज दशरथ की भी महिमा यही है कि भगवान् रामचन्द्र के वियोग में वे अपने प्राणों को रख सकेः ‘बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। सत्य-स्वरूप राघवेन्द्र रामचन्द्र भगवान् में सत्य-प्रेम होने के कारण अवध-भुआल ने परम प्रेमास्पद प्राणों को भी तृणवत् त्याग दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस’ बाल०16