गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 401

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 15

जो भगवत्-विप्रयोगजन्य अत्यन्त तीव्र-ताप से संतप्त हैं, जिनके लिए एक-एक क्षण एक-एक त्रुटि युगवत् व्यतीत होता है, जो भगवत्-प्रेमोद्रेकजन्य उन्माद-ग्रस्त हो रही हैं ऐसी ही तामसी भाववती गोपाङनाएँ प्रेम-विहल हो निन्दा के व्याज से भी सतत भगवत्-कथा में ही संलग्न रहना चाह रही हैं। यह निन्दा भी अद्भुत लोकोत्तर माधुर्य एवं सौरस्यपरिपूर्ण है। ऐसी निन्दा को भगवान् श्रीकृष्ण भी प्रेमविहल हो करोड़ों कान से सुनते हैं।

वृन्दावन धाम की महत्ता का पुनः विचार करती हुई वे कह रही हैं, ‘कं सुखरूपं आननं काननं’ वृन्दावन धाम ही उनका सुखरूप आनन है। ‘आननं मुख्यो भागः मुख्यं स्थानं कं सुखरूपं यस्य’ तात्पर्य कि वृन्दावन धाम ही उनका सुखरूप ही मुख है; सम्पूर्ण अवयवों में सुख ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, सुखस्वरूप है। शास्त्रों ने, ऋषियों ने और भक्तों ने वृन्दावन धाम को साक्षात् ब्रह्मस्वरूप ही कहा है; ‘स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठितः स्वे महिम्नि’[1] अर्थात्, भगवान् अपनी ही महिमा में प्रतिष्ठित होते हैं। एतावता वृन्दावन धाम भगवत्-स्वरूप ही हैं। सर्वाधार भगवान् स्वयं निराधार अथवा स्वाधार अपने-आप में प्रतिष्ठित हैं। सर्वाधार के आधार की कल्पना में अनवस्था प्रसक्त होगी, एतावता सर्वाधार, सर्वकारण, सर्वप्रकाशक भगवान् स्वाधार, स्वकारण, स्वप्रकाशक हैं। वृन्दावन भगवान् का मुख्यस्वरूप है; ‘मुखभागं मुख्यस्थानम्’ मुखभाग ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है अतः वृन्दावनधाम भी भगवत्-स्वरूप ही है।

प्रबोधानन्द सरस्वती कहते हैं,‘यत्र प्रविष्टे सकलोऽपि जन्तुः आनन्दसच्चिद्धनतामुपैति’, वृन्दावनधाम में प्रवेश करते ही प्राणीमात्र सच्चिदानन्दघनस्वरूप हो जाता है। जैसे सैन्धव की खान में निक्षिप्त वस्तु सैन्धव ही हो जाती है, वैसे ही आनन्द की खान, वृन्दावन धाम में आगत प्राणी भी तत्क्षण परमानन्दघनस्वरूप हो जाता है, उसके प्राकृत लौकिक रूप नष्ट हो जाते हैं और उसमें अपाकृत दिव्य रूप भगवद् रूप का प्राकट्य हो जाता है। वृन्दावन धाम सुखस्वरूप हैः जैसे ध्यान-निष्ठ प्राणी ध्यानावस्था में निश्चेष्ट प्रतीत होता है, वैसे ही वृन्दावन धाम भी सच्चिदानन्दघनस्वरूप होते हुए भी ध्यानावस्थित होने के कारण जड़वत् प्रतीत हो रहा है। ‘ध्यायंतीव पर्वताः’[2] पर्वत निश्चेष्ट हैं मानो ध्यान कर रहे हों परन्तु वृन्दावन धाम में कुछ अद्भुत चमत्कार है-भगवत्-ध्यान में तल्लीन हो जड़वत् होने पर भी इसमें नाना प्रकार के लोकोत्तर भाव उद्बुद्ध हो रहे हैं। इसके नाना प्रकार के मुकुल ही मानों इसकी रोमांचोद्गति हैं; पुष्प ही अद्भुत प्रहास अद्भुत पुण्य का विकास है और लता गुल्मादिकों से सतत अपकती मधु-धाराएँ ही आनन्दाश्रु हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छा0 7/24/1
  2. छा0 7/6/1

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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