गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 15यात्री आगे बढ़ जाते। भक्त के हठ से विवश हो भगवान् पधारे। भक्त ने कहा, “नहीं महाराज! आप भी हमारी लटें न छुएँ; हमारा पारिव्रत्य नष्ट हो जायगा। यहाँ तो मथुरानाथ, द्वारिकानाथ, व्रजेन्द्रनन्दन आदि कई कृष्ण-स्वरूप हैं। रासेश्वरी, नित्य-निकुज्जेश्वरी राधारानी जिस कृष्ण-स्वरूप की साक्षी दें वही हमारी उलझी लटों को सुलझावेगा।” भक्त-भाव-विवश, भक्त-वत्सला राधारानी पधारी, व्रजेन्द्र-नन्दन कृष्ण की साक्षी दी और तब भक्त-परतन्त्र, भक्त-प्रपन्न भगवान् श्रीकृष्ण ने भक्त को उलझी लटों से मुक्ती दी। ऐसे अनेक मनोरम आख्यान भक्तों में प्रचलित हैं। प्रसिद्ध है कि कावेरी-तट-निवासी गदाधर भट्ट ने व्रजवासी जीव गोस्वामी को एक पत्र में, ‘सखी! हौं श्याम रंग रंगी’ लिख भेजा! उत्तर में जीव गोस्वामी ने एक श्लोक लिख भेजा; ‘अनाराध्य राधापदाम्भोजयुग्ममनासेव्य वृन्दाटवीं तत्पदाङ्काम। अर्थात्, राधारानी के मंगलमय पदारविन्दों की आराधना किये विना अनेक चरण-चिह्नों से अंकित वृन्दाटवी का सेवन किये बिना; उनके भक्तों की पादाब्ज-रेणु का समास्वादन किए बिना श्याम-सिन्धु-रस का अवगाहन क्यों-कर सम्भव है? जिस समय गदाधर भट्ट को गोस्वामी जी का यह पत्र मिला उस समय वे कावेरी-तट पर दातुन कर रहे थे; पत्र को पढ़ते ही दातुन फेंक-कर भट्टजो वृन्दावन के लिए चल पड़े। तात्पर्य कि भक्ति-सिद्धान्तानुसार वृन्दावनधाम की भक्ति किए बिना भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन भी दुर्लभ हैं। ‘कुत्सितानि आननानि यस्तिन् तत् काननम्; कुत्सितम् भगवतोप्याननं यस्मिन् तत् काननं; कुत्सितानि अस्माकम् अपि आननानि यस्मात् तत् काननम्’ इत्यादि व्युत्पत्तियों से कानन में दोषानुसन्धान करती हुई गोपाङनाएँ विचार करती हैं कि जिस वृन्दावन धाम की विशिष्ट महिमा है उसमें हम दोषानुसंधान कर रही हैं, यह सर्वथा अनुचित ही है। वस्तुस्थिति यह है कि तामसी भाववती कुछ गोपाङनाएँ ही ऐसा कर रही हैं। तामसी भाववती गोपाङनाएँ ही कभी देव-निन्दा तो कभी धाम-निन्दा करती हैं; कभी अपनी ही निन्दा करने लगती हैं। |