गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 402

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 15

इस प्रकार सम्पूर्ण वृन्दावन धाम, भगवान् का परम अनन्यभक्त, ध्यान-जन्य जड़ता एवं प्रमोद्रेक-जन्य रोमांचोद्गति, प्रहास एवं आनन्दाश्रुपूर्ण है। निश्चय ही भगवद्दर्शन के कारण ही वृन्दावन धाम में अष्ट सात्त्विक भाव आविर्भूत हुए हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये हैं अतः उनके अविर्भाव हेतु गोप-कन्याएँ उनका अनुनय विनय कर रही हैं; हे प्रभु कुछ लोग सांसारिक दुःखों से संतप्त हो, उद्विग्न हो सर्वस्व त्यागकर अरण्य में जाकर आपका आश्रयण करते हैं; हम भी सर्वस्व का त्यागकर वृन्दारण्य में आई हैं परन्तु हम लोकिक दुःखों से संतप्त होकर नहीं अपितु आपके दर्शन एवं अदर्शन उभयथाऽपि संताप से उद्विग्न होकर ही आपकी शरण आई हैं। वृन्दावन-धाम में कृष्णानुरागिनी इन गोपाङनाओं का श्रीकृष्ण-सम्मिलन हेतु आगमन लोकिक विभिन्न वासना-बद्ध अभिसारिकाओं द्वारा किए गए अपने प्रेयान् के अनुसरण से सर्वथा भिन्न है। अभिसारिका वासना-प्रेरित हो कान्त का अनुसरण करती हैं, गोपाङनाएँ सम्पूर्ण वासनाओं का परित्याग कर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्दों का आश्रयण कर रही हैं।

‘मोक्षमिच्छन् सदाकर्म त्यजेदेव ससाधनम्।
त्यजतैवहि तज्ज्ञेयं त्यक्तुः प्रत्यक्परं पदम्।।’[1]

त्याग से ही परात्पर परब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति होती है। सर्वस्व त्यागी का अपना आत्मा ही परात्पर परब्रह्म है; प्रमातृत्व का पूर्ण त्याग बन जाने पर प्रत्येक़ का जो सर्वान्तरतम शुद्धस्वरूप है वही परात्पर परब्रह्म है। एतावता जब तक अहंकार का, कर्तृत्वभाव का त्याग न बने तब तक धन-धान्य, पुत्र-पौत्रादिक लौकिक सुख-साधनों का परित्याग अपर्याप्त है। सम्पूर्ण लौकिक सुख-साधन सामग्री के साथ ही साथ उन पदार्थों की वासना एवं अहंकार का भी परित्याग अनिवार्य है। सांसारिक कर्मजाल को त्यागकर भगवत्-चिन्तन में, भगवत्-चरित्र-श्रवण में, भगवत्-नाम-स्मरण में चित्त लगाना त्याग का प्रथम स्वरूप है। गोपाङनाओं ने सर्वस्व का त्याग किया है; यहाँ तक कि निमेषोन्मेष के कारण प्रभु-दर्शन में विक्षेप होने के कारण वे अपने पक्ष्मों का भी निकृन्तन कर देना चाह रही है; इतना ही नही उनका तो कहना है कि वह प्राणी जड़ है जो भगवद्-दर्शनजन्य सुख-रसास्वादन में विघ्नकारक इन पक्ष्मों का भी निकृन्तन करने के लिए उद्यत न हो। भगवान् भी अपने भक्त ब्राह्मणों के लिए सनकादि से कहते हैं। ‘छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम्’[2] अर्थात्, यदि मेरी भुजाएँ आप लोगों के विपरीत पड़ें तो में इन्हें काटकर फेंक दूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. केनो0 भाष्य 4/7
  2. श्रीमद् भा0 3/16/6

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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