गोपी गीत -करपात्री महाराजये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम्। मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ और अस्वतन्त्र की तरह हूँ। मेरे साधु हृदय में भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। मैं उन भक्तों का सदा ही प्रिय हूँ। हे ब्रह्मन्! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। उनको अन्य किसी का आश्रय है ही नहीं। इसलिये अपने उन साधुस्वभाव वाले भक्तों को छोड़कर न तो मैं अपने-आप को चाहता हूँ और अपनी अर्धान्गिनी लक्ष्मी को ही। जो मेरे भक्त अपने पुत्र, कलत्र (स्त्री), घर, कुटुम्बीजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक सबको छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं; भला, उन भक्तों को मैं कैसे छोड़ सकता हूँ? जिस प्रकार सती स्त्री अपने पातिव्रत्य से सदाचारी पति को अपने वश में कर लेती है, वैसे ही अपने हृदय को मुझमें प्रेमबन्धन से बाँध रखने वाले समदर्शी साधुपुरुष भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं। अधिक क्या कहूँ, वे मेरे प्रेमी साधुपुरुष मेरे हृदय हैं और मैं उन प्रेमी साधुपुरुषों का हृदय हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं भी उनके अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता। भगवान ने यहाँ तक कह दिया है- अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः।। मैं उन भक्तों के पीछे-पीछे सदा इसलिये चलता रहता हूँ कि उनकी चरण-रज से पवित्र हो जाऊँ। |