गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 5

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

भक्ति की महिमा बड़ी अद्भुत है। भक्ति वह अनुपम वस्तु है कि वह जिसके पास होती है, वह जो कुछ चाहता है, वही उसे मिल जाता है। भगवान स्वयं गीता में कहते हैं-

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।।

परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा ही मुझे इस प्रकार से देखा जा सकता है, मेरे यथार्थस्वरूप को जाना जा सकता है तथा मेरे साथ एकीभाव को भी प्राप्त किया जा सकता है।

श्रीमद्भागवत का दशमस्कन्ध तो भक्तिरस के अथाह सागर का ज्वारभाटा-स्वरूप ही है। इस दशमस्कन्ध में भगवान की विविधि मधुर लीलाओं का वर्णन है, जो सहृदय भक्तों के हृदय को भक्तिरस से आप्लावित कर देता है। किन्तु इस संसार में कुछ ऐसे भी नर-पशु या नर-कृमि हैं, जिनके हृदय का निर्माण ब्रह्मा ने मानों पाषाण से किया होगा। वे भाग्यहीन नर-पशु भगवान पर भी आक्षेप करके अपनी नरपशुता अथवा पाषाणहृदता को प्रकट किया करते हैं।

उनके आक्षेप ये हैं-
जबकि भगवान का अवतार सज्जनों के संरक्षणार्थ और दुर्जनों के संहारार्थ तथा धर्म के स्थापनार्थ होता है। अतः भगवान को आदर्श के रूप में रखा जाता है। तब उनकी लीलाओं में चोरी, कपट, काम, रमण आदि के प्रसंग क्यों आते हैं?

विद्याव्यासंग तथा श्रीकृष्ण की भक्ति-सुधारस का निरन्तर पान करने वालों के मन में इस प्रकार के कुतर्क-तरंग कभी उठते ही नहीं। श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवद्गीता के अनुशीलन से वे कुतर्क-तरंग स्वयं ही शान्त हो जाते हैं, भगवान् का प्रत्येक कार्य सभी के लिये आदर्शरूप है।

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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