गोपी गीत -करपात्री महाराजभक्ति की महिमा बड़ी अद्भुत है। भक्ति वह अनुपम वस्तु है कि वह जिसके पास होती है, वह जो कुछ चाहता है, वही उसे मिल जाता है। भगवान स्वयं गीता में कहते हैं- भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा ही मुझे इस प्रकार से देखा जा सकता है, मेरे यथार्थस्वरूप को जाना जा सकता है तथा मेरे साथ एकीभाव को भी प्राप्त किया जा सकता है। श्रीमद्भागवत का दशमस्कन्ध तो भक्तिरस के अथाह सागर का ज्वारभाटा-स्वरूप ही है। इस दशमस्कन्ध में भगवान की विविधि मधुर लीलाओं का वर्णन है, जो सहृदय भक्तों के हृदय को भक्तिरस से आप्लावित कर देता है। किन्तु इस संसार में कुछ ऐसे भी नर-पशु या नर-कृमि हैं, जिनके हृदय का निर्माण ब्रह्मा ने मानों पाषाण से किया होगा। वे भाग्यहीन नर-पशु भगवान पर भी आक्षेप करके अपनी नरपशुता अथवा पाषाणहृदता को प्रकट किया करते हैं। उनके आक्षेप ये हैं- विद्याव्यासंग तथा श्रीकृष्ण की भक्ति-सुधारस का निरन्तर पान करने वालों के मन में इस प्रकार के कुतर्क-तरंग कभी उठते ही नहीं। श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवद्गीता के अनुशीलन से वे कुतर्क-तरंग स्वयं ही शान्त हो जाते हैं, भगवान् का प्रत्येक कार्य सभी के लिये आदर्शरूप है। |