गोपी गीत -करपात्री महाराजवाग गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं मेरे प्रति वृद्धिगत हुई भक्ति जिस प्रकार भक्त को मेरे समीप ले आती है उस प्रकार न तो योग, न ज्ञान, न धर्म, न स्वाध्याय, न तप, न दान ही उसे ला सकता है। मैं तो सत्पुरुषों का प्रिय आत्मा हूँ। एकमात्र श्रद्धापूर्ण भक्ति से ही मेरी प्राप्ति होना सुलभ है। अधिक क्या बताऊँ, कुत्ते का मांस खाने वाले चण्डाल को भी मेरी भक्ति पवित्र कर देती है। मनुष्य में सत्य, दया आदि से युक्त धर्म तथा तपस्या से युक्त विद्या भी हो, किन्तु मेरी भक्ति यदि न हो तो वे धर्म और विद्या, उनके हृदय को पूर्णतया पवित्र नहीं कर सकते। मेरे प्रति प्रेम से जब तक शरीर पुलकित नहीं हो जाता, हृदय द्रवित नहीं हो उठता, आनन्दाश्रुओं की झड़ी नहीं लग जाती, तब तक अन्तःकरण कैसे शुद्ध हो सकता है। भक्ति के आवेश में जिसकी वाणी गद्गद हो गई है, चित्त द्रवित हो गया है, जो कभी रोता है, कभी हँसता है, कभी संकोच को त्यागकर ऊँचे स्वर से हरि-गुणों को गाने लग जाता है और कभी नाचने लगता है, वही मेरा भक्त स्वयं तो पवित्र होता ही है, साथ ही तीनों लोकों को भी पवित्र कर देता है। भक्ति से भगवान् वश में हो जाते हैं। भगवान स्वयं कहते हैं- ‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज। |