गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13माननी पक्ष का व्याख्यान है। जीव में भगवत्-प्रेम, भगवत्-सान्निध्य की मनसा, वाचा, कर्मणा उत्कण्ठा जागृत हो जाने पर भगवान् भी उस जीव का अनुसरण करने लगते हैं। पूर्व-प्रसंगों में इस विषय पर विस्तृत विवेचना की जा चुकी है। ऐसी उत्कट उत्कण्ठाभाववती गोपाङनाएँ ही मानिनी हैं। स्वयं श्री भगवान् ही उन मानिनियों के पक्ष में प्रयास करते हैं। उदाहरणतः सती वृन्दा, तुलसी महारानी की कथा प्रसिद्ध ही है। अत्यन्त ममत्व के कारण गोपाङनाएँ भी यही अनुभाव करती हैं कि श्यामसुन्दर मदनमोहन ही उनके लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। वे अनुभव करती हैं मानो श्रीकृष्ण कह रहे हैं ‘हे सखियो! तुम्हारे दर्शन से ही हमारे मन में तुम्हारे सम्मिलन की उत्कट इच्छा जाग्रत हो जाती है अतः हम तुम लोगों के सम्मुख प्रकट नहीं होते।’ उत्तर देती हुई वे कह रही हैं-‘हे रमण! आप अधिकाधिक अपने चरणारविन्दों को हमारे उरस्थल पर विराजमान कर सकते हैं; इसी से आपके हृत्ताप का शमन हो जायगा।’ उसमें पुनः भगवत्-वाक्य का स्फुरण होता है ‘रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्।’ ‘हे सखियो! इसमें तो तुम्हारा अवमान ही होगा।’ प्रत्युत्तर में वे कह रही हैं, ‘हे रमण! हमको इस अवमान की कोई चिन्ता नहीं। यदि यह अवमान है तो भी वह अत्यन्त स्तुत्य है। ‘प्रणतकामदं’, ‘पदमजार्चितं’, ‘धरणि-मंडनं’, ‘ध्येयमापदि’, ‘शंतमं’ एवं ‘आधिहन्’ विशेषण-विशिष्ट पाद-पंकज के विन्यास से हमारी प्रशंसा ही होगी। निवृत्तिपक्षीय व्याख्यान है। श्रुतियाँ कह रही हैं-हे विभो! ईश्वर एवं नाना प्रकार के जीवरूप में आप ही लीला हेतु रमण कर रहे हैं। ‘तेन तेन रूपेण रमते’ वेद-वाक्य है ‘अयमावसथः, अयमावसथः, अयमावसथः’[1]भगवान् के तीन धाम, निवासस्थान हैं। जागरावस्था में भगवत्-धाम नेत्र हैं; तात्पर्य नेत्रोपलक्षित तत्-तत् पंच ज्ञानेन्दियाँ ही जागरावस्था में भगवत्-धाम हैं। तत्-तत् ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा तत्-तत् विषय का आहरण करते हुए तत्-तत् इन्द्रियोपारूढ अन्तःकरण पर अभिव्यक्त होकर भगवान् ही रमण करते हैं। स्वनावस्था में भगवान् का धाम कण्ठ है; कण्ठ-स्थान में सूक्ष्म शरीर की प्रधानता रहती है; स्वप्नावस्था में उस सूक्ष्म शरीर में अवस्थित होकर भगवान् रमण करते हैं। सुषुप्ति-अवस्था में, निद्राकाल में भगवान् हृदय-स्थान में विहरण करते है हृदय-स्थान में कारण-देह की प्रधानता है; इस कारण-देह में विराजमान होकर भगवान् सुषुप्ति-अवस्था में विहरण करते हैं। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत अनन्तानन्त प्राणियों में जो सर्वद्रष्टा, सर्वसाक्षी, सर्वाभिमानी होकर रमण करे वही राम है। अथवा योगींद्र, मुनींद्र, अमलात्मा, परमहंस जिसमे रमण करते हैं, वह राम है। तात्पर्य कि जो सब में रमण करे, और जिनमें सम्पूर्ण विश्व रमण करे वही राम है। ‘नः श्रुतीनां स्तनेषु कर्मोपासनाभागेषु’ कर्मकाण्ड एवं उपासना-काण्ड भागद्वय श्रुतियों की रतन-द्वयी है। इस स्तन-द्वय में भगवत-पादार–विंद–विन्यास की कामना श्रुतियाँ कर रही हैं। तात्पर्य कि कर्मकाण्डपरक एवं उपासनाकाण्डपरक सम्पूर्ण वेद-राशि का महातात्पर्य भगवत्-चरणारविन्द ही है; ऐसी दृढ़ अभिव्यंजना अधिकारी भक्तजनों के हृदय-न्यस्त ही यही उनकी कामना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऐ0 उ0 3!12