गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13गीता-वाक्य है- ‘इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। अर्थात्, इन्द्रियों द्वारा विभिन्न विषयों के भोग में तब तक खतरा नहीं जब तक मन से उसका अनुगमन न हो। सिद्धान्त है-‘प्राणात् सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते।’[2] सम्पूर्ण काम्य पदार्थों को प्राप्त करने की अपेक्षा उनका त्याग ही विशिष्ट है। यदा-कदा बाह्यतः सम्पूर्ण वासनाओं का त्याग करते हुए भी अन्तःकरण में तत् वासना के संस्कार रह जाते हैं। ‘कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। अर्थात्, जो कर्मेन्द्रियों का तो संयम कर लेता है परन्तु मन में विषयों का चिन्तन करता रहता है वह विमूढात्मा मिथ्याचारी है। ऐसे विमूढात्मा मिथ्याचारी की अपेक्षा वह व्यक्ति जो वैध-वस्तु को प्राप्त कर लेता है अधिक संयत है क्योंकि वस्तु की प्राप्ति से तदृवियक स्पृहा का अन्त हो जाता है। साथ ही, ‘यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियाः। अर्थात्, जैसे अग्नि में घृत की आहुति देने से वह कदापि शान्त नहीं होती, वैसे ही संसार के सम्पूर्ण काम्य पदार्थ किसी एक व्यक्ति की आकांक्षा-पूर्ति में समर्थ नहीं होते। इस सत्य को जानकर प्राणी संयमपूर्वक रहे। अस्तु, शास्त्राज्ञा है ‘ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्’ (जबालोपनिषद्) ब्रह्मचर्याश्रम से ही परिव्रज्या ग्रहण कर ले। ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्’ यदि ऐसा सम्भव न हो सके तो शास्त्र-विहित मर्यादानुकूल वैधमार्ग से तत्-तत् विषयों के उपभोग-पुरस्सर वैराग्य-सम्पादन करें। वैराग्य-संपादन होने पर व्यवहारतः तत्-तत् विषय-भोग भी काम-निष्ठ नहीं रह जाता। भगवदुन्मुखी प्रवृत्तियों से विभिन्न वस्तुओं को ग्रहण करने पर उनमें कामता कदापि नहीं आती; वासना के न होने पर आशय, संस्कार नहीं बनते; संस्कार के न होने पर जन्म-मरण-परम्परा नहीं बनती। एतावता वह बाह्यतः भोग भी सर्वानर्थविनिर्मुक्त होता है। |