गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13चित्त की तत्प्रवणता ही वास्विक सेवा है। ‘तत् सिद्ध्यै तनु-वित्तजा।’ भगवदुन्मुखी सेवा अत्यन्त दुरूह है; शरीर एवं वित्त से सेवा करते हुए क्रमशः भगवदभिमुखता प्रस्फुटित होती है। ‘वित्तशाठ्यविवर्जितं’ वित्त-शाठ्य निंद्य है। अपनी अर्थ-शिक्ति से न्यून अथवा अतिरिक्त करना दोनों ही स्थिति-‘वित्त-शाठ्य’ है। यदा-कदा इन महत्-वाक्यों के आवरण में पाखण्ड-रचना भी होती है परन्तु सर्वान्तर्यामी यथार्थ ज्ञान में समर्थ है। ‘किं करिष्यति जनो बहुजल्पः सर्वथा स्वहितमाचरणीयम्।’ बुद्धिमान व्यक्ति अन्य की आलोचना क्यों करे? वह तो स्वहित की ही चिन्ता करता है। शास्त्र-कथन है ‘नात्मार्थं पाचबेदन्नम्’ केवल अपने लिए ही भोजन न बनावे ‘केवलाघो भवति केवलादी’[1] केवल अपने लिए भोजन बनाने वाला अपभक्षी होता है। महाभारत में विधशासी का बड़ा महत्त्व माना गया है। विधिपूर्वक बलि, वैश्वदेव, भूत-यज्ञ, नर-यज्ञ, देव-यज्ञ, ब्रह्म-यज्ञानन्तर भगवान् को भोग लगाकर, अतिथि सत्कार कर भोजन ग्रहण करने वाला ही विधशासी है। अर्थात यज्ञावशिष्ट भोजन करें। प्रत्येक भोग का परिणाम वासना है। वासना ही आशा है ‘आशेरते हृदयेषु इति आशयाः’ जो सूक्ष्म रूप से हृदय में शयन करता है वही वासना किंवा आशय, संस्कार है। नाना प्रकार के सूक्ष्म संस्कार अन्तःकरण में जम जाते हैं; ये अन्तःकरणस्थित विभिन्न संस्कार ही जन्म-मरण-परम्परा का मूल-कारण, बीजस्वरूप हैं। ‘यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान् मनसः प्रियान्। अर्थात, प्राणी जितने ही अधिक सांसारिक भोग-विषय किंवा सुहृदादि नातों में प्रेम जोड़ता है उतनी ही अधिक लौह-शलाकाओं को अपने हृदय में ठोकता जाता है। |