गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 381

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 13

जिस भक्त के हृदय में भगवत्-चरणारविन्दों का प्रादुर्भाव हुआ हो उसकी मुखाकृति में भी अद्भुत आभा, प्रभा एवं कांति, अद्भुत चमत्कृति दृष्टिगोचर होती है। श्री भगवान् के मधुर, मनोहर, मंगल-मय पादरविन्द से अलंकृत हृदय में ही भक्ति सुशोभित होती है। एतावता वह भी तीर्थ हैं। सिद्धान्त है-

‘न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते।’[1]

अर्थात्, जिनकी बुद्धि भगवान् सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान् परात्पर परब्रह्म प्रभु में सन्निविष्ट हो चुकी है उनका काम भी वस्तुतः काम नहीं होता। नायक-नायिका-निष्ठ इच्छा भी काम-पद व्यपदिष्ट है; शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धात्मक सम्पूर्ण संयोग भी काम व्यपदिष्ट है। भगवत्-वाक्य है-

‘धर्माविरुरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।‘[2]

हे अर्जुन! धर्माविरुद्ध काम भी मेरा स्वरूप है।

‘मत्प्रसादस्तु निर्गुणः।’

वह मेरे प्रसाद से निर्गुण होता है। तात्पर्य कि संसार की विभिन्न वस्तुओं में सात्त्विक, तामसिक एवं राजसिक भाव होते हैं परन्तु भगवत्-प्रसाद तीनों गुणों से पर, निर्गुण ही है।

‘भर्जिताः क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते।’[3]

वह विषय-भोग तात्कालिक सुख का हेतु होते हुए भी भुने हुए धान के तुल्य अंकुरोत्पादिनी शक्ति से हीन होता है। श्री वल्लभाचार्यजी कहते हैं-

‘कृष्णसेवा सदा कार्य मानसी सा परा मता।’

श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द की सेवा का सदा कर्तव्य है; मानसी सेवा ही सर्वोत्कृष्ट है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री0 भा0 10/22/26
  2. श्री0 भा0 7/11
  3. श्री0 भा0 10/22/26

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
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