गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13भगवत-चरणारविन्दों से दीन-वत्सलता, सौभाग्यातिशयता तथा सौन्दर्यातिशयता ही लक्षित है; इन चरणारविन्दों से जिसका मण्डन हो उसमें गुणगणों की वृद्धि स्वभावतः ही हो जाती है। ऐश्वर्याधिष्ठात्री महालक्ष्मी पद्मजा द्वारा पूजित हुए भी भगवत्-चरणारविन्द, दीन-वत्सल हैं एतावता उन से अंकित हो धरणी अलंकृत हो जाती है। ‘सरोविदलितम्’ अर्थात् सरोवर फूला है; ऐसी युक्ति का तात्पर्य यही होता है सरोवर में कमल-कमलिनी खिले हैं। इसी तरह, भगवत्-चरणारविन्द ‘धरणि-मंडनं’ है जैसे कथन का तात्पर्य भी यही है कि निवारण भगवत्-चरणारविन्दों का स्पर्श प्राप्त कर धरणी मंडित, अलंकृत हो रही है। जिस समय मंगलमय विभु के चरणारविन्द धरणी पर प्रकट होते हैं इन्द्र, ब्रह्मादि देवाधिदेवगण भी पृथ्वी की सौभा निरीक्षण-हेतु धरणी पर पधारते हैं। एतावता धरणी के माध्यम से प्राणीमात्र का मण्डन करने वाले चरणारविन्दों से वस्तुतः धरणी ही समलंकृत होती है। ‘तस्याहमब्जकुलिशाङ्कुशकेतुकेतैः। अर्थात, हे प्रभो! आपके लावण्य से ही अनन्तानन्त प्राणियों को लावण्य का दान मिलता है; जैसे, महासमुद्र से ही विभिन्न तरंगें उद्गत होती हैं, वैसे ही अनंतकोटि ब्रह्माण्डन्तर्गत अनन्तानन्त ब्रह्म-रुद्र-इन्द्रादिक देव-शिरोमणियों को प्राप्त होने वाला आनन्द एवं लावण्य, सौरभ्य, सौगन्ध्य, सौभाग्यादि सम्पूर्ण उत्तमोत्तम गुणगण भगवान् के मंगलमय चरणारविन्दों से ही उद्बुद्ध होते हैं। ईशवास्योपनिषद् का कथन है ‘ यत् किञ्चित् जगत्यां जगत्’ ‘जगत्याम्’ अर्थात्, ‘पृथिव्याम्’; ‘मायाभूमौ’ माया की भूमि; मायारूपी भूमिका में ही सम्पूर्ण विश्व-प्रपञ्च स्थित है। तात्पर्य कि भगवत्-चरणारविन्द हो धरणी के माध्यम से अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड के अनन्तानन्त प्राणियों को अपने सौन्दर्य, माधुर्य, सौरस्य, सौगन्ध्यादि उत्तमोत्तम गुणगणों से अलंकृत करते हैं। अनुभूत सत्य है कि किसी सौभाग्यशाली महापुरुष के रहने पर वहाँ के वातावरण में अद्भुत कांति रहती है, वह स्थल जगमगाता रहता है परन्तु उस महात्मा के चले जाने पर वही स्थल, वही वातावरण कांतिहीन, श्रीहीन, दीन हो जाता है। यही कारण है कि आज भी भक्तजन अयोध्या, मथुरा, वृन्दावन आदि भूमियों का दर्शन करने जाते हैं और वहाँ की मिट्टी को भी अपने मस्तक पर धारण करने में अपना अहोभाग्य मानते हैं, भगवत्-चरणारविन्दों से अंकित भूमि खण्ड ही विशिष्ट तीर्थस्थान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री0 भा0 1/16/33