गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13‘रक्षिष्यतीति विश्वासः’ जैसे सुढृढ़ भावना के कारण आस्तिक का धैर्य-भंग नहीं होता। ‘आपद्यमग्नधैर्यत्वं सम्पद्यनभिमानिता। अर्थात, आपत्ति में धैर्य-भंग न हो, सम्पत्ति में अभिमान न हो यही महासत्त्व का लक्षण है; भगवान् की असीम अनुकम्पावशात् ही यह महासत्त्व-स्थित प्राप्त होती है। भगवत्-उपासना से भक्त-मण्डल भी होता है; भक्त का ऐश्वर्य, आभा, प्रभा, कान्ति बढ़ जाती है। यदा-कदा धर्मराज युधिष्ठिर जैसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। इन उदाहरणों के कारण भ्रांतियों को स्थान मिलता है। यथार्थ में सम्यक् विचार से इन भ्रांतियों का निवारण हो जाता है। जैसे, प्रत्येक बीज के अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होने में तदनुकूल समय की अपेक्षा करनी पड़ती है। उग्र पुण्य किंवा पाप का फल तत्काल होता है। तात्पर्य की पूर्वाजित शुभा-शुभ कर्म का फल समयानुकूल ही प्राप्त होगा तथापि विशिष्ट उग्र शुभाशुभ कर्म का फल तत्काल ही होता है। भीषण विपत्तिकाल में अखण्ड ध्यान, अखण्ड भजन का विधान है। यह अखण्ड ध्यान एवं भजन सबाह्याभ्यन्तर होना चाहिए। बहिरंग एवं अनन्तर प्रवृत्ति की एकाग्रता होने पर तत्क्षण कार्यसिद्धि होती है। ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ अन्तिम विजय सत्य की ही होती है। अस्तु, भगवत्-चरणारविन्द आपन्नजनों के वृजिन का समूल उन्मूलन तथा सम्पूर्ण षडैश्वर्य का मण्डन करने वाले हैं। भगवान् परम-रसिक शरणागतवत्सल, दीनवत्सल हैं। ‘पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं’ जैसी उक्ति से एक भाव यह भी विवक्षित होता है कि भगवान् के मंगलमय पदारविन्द अनन्त सौन्दर्य, माधुर्य, सौभाग्य एवं ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री भगवती महालक्ष्मी द्वारा पूज्य हैं और धरणी के मण्डन हैं। इस कथन द्वारा महालक्ष्मी की तुलना में धरणी का सौभाग्यातिशय ही विवक्षित है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र वृन्दावन में निवारण चरणों से ही अटन कर रहे हैं। उनके चरणारविन्दों में ध्वज, वज्र, अंकुशादि जो अनेक चिह्न हैं, वे धरणी के उर-स्थल पर मण्डित हो जाते हैं। सौन्दर्यशाली के संसर्ग से असुन्दर वस्तु भी अलंकृत तथा सौभाग्यहीन वस्तु भी सौभाग्यशाली हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्कन्दपुराणे प्रथमे माहेश्वरखण्डे द्वितीये कौमारिकाखण्डे अ0 34, श्लोक 78