गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13कर्म एवं उपासना-काण्ड के आदेशानुसार भगवान् के मंगलमय पादारविन्द की आराधना करता हुआ जीव अपने अन्तःकरण की शुद्धि संपादन कर चित्त की एकाग्रता अर्जित कर लेता है। एकाग्र चित्त से वेदान्त-श्रवण, मनन, निदिध्यासन करते हुए प्रत्यक्, चैतन्याभिन्न, परात्पर परब्रह्म परमात्मा का अपरोक्ष साक्षात्कार कर परमपद को प्राप्त हो जाता है। हे वीर! आप अविद्या एवं तत्कार्यात्मक प्रपंचों के समूल उन्मूलन में समर्थ हैं। आपके चरणारविन्द ‘प्रणतकामदं’, प्रणत-प्राणी के सांगोपांग काम, सर्व प्रकार की कामनाओं की संपूर्ति प्रदान करने वाले हैं; ‘पद्मजार्चितं’ पद्मज ब्रह्मा एवं पद्मजा महालक्ष्मी द्वारा पूज्य हैं, ‘आधिहन्’ सम्पूर्ण आधि-व्याधि एवं शोक-संताप के हर्ता हैं- ‘जिह्रैकतोच्युत विकर्षति माऽवितृप्ता शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित्। जैसे कोई पुरुष अपनी अनेक पत्नियों द्वारा अपनी-अपनी ओर खींचा जाकर विह्वल हो उठता है, वैसे ही, दीन-हीन बना हुआ मन एवं मन-विशिष्ट अन्तरात्मा भी दसों इन्द्रियों द्वारा अपनी-अपनी ओर खींचे जाकर अत्यन्त विह्वल, अत्यन्त चंचल हो उठता है। ‘तस्मिन् कथं तव गति विमृशामि दोनः।’[2] ऐसा दीन-हीन, विह्वल, चंचल मन आपके अनुसन्धान में क्योंकर प्रवृत हो सकता है? ऐसे आपत्ति-काल में भी आपके चरणारविन्द ही एकमात्र आश्रय हैं, आपके चरणारविन्द ही ध्येयमापदि हैं। भगवत्-पादपंकज का ध्यान करने से ही सम्पूर्ण अशांति के कारण ही अन्त हो जाता है। भगवत्-पदाम्बुज-ध्यान-रत प्राणी अनेकानेक लौकिक कामनाओं से तृस्त नहीं होता। दृष्ट-कार्य-कारण-भाव, इस लोक में ही जिसका कार्य-कारण-भाव सिद्ध है, ‘कण्टकेन कण्टकोद्धारः’ भगवत्-चरणारविन्दानुरागी सम्पूर्ण इतर विषयों से विरक्त हो जाता हैः आप्तकाम, पूर्णकाम, परम-निष्कामजनों की जन्म-मरण-परम्परा के बीज का उच्छेदन हो जाता है। व्यवहारतः भी किसी विशिष्ट-विषय के ध्यान द्वारा मन को अन्य विषयों से उपरत किया जा सकता है; जैसे क्रोधाकारवृत्ति के उद्भूत होने पर तत्काल के लिए काम-वृत्ति उपशमित हो जाती है परन्तु ऐसे शमन न शोभन होते हैं, न पुण्यकारक। भगवत्-चरणारविन्द का ध्यान सदा-सर्वदा-सर्वत्र शोभन भी है और पुण्य-कारक भी। |