गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13उदाहरणतः अर्जुन में दुर्योधन के आधिपत्य को समाप्त कर अखण्ड भूमण्डल का राज्य प्राप्त कर लेने की अत्यन्त प्रबल इच्छा थी; तदर्थ अर्जुन के भगवान् सदाशिव की उग्र आराधना कर पाशुपत अस्त्र प्राप्त किया; सात अक्षौहिणी सेना का संघटन किया; स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द भगवान् को निमंत्रित कर संग्राम-क्षेत्र में भी ले आया; ये समस्त क्रियाएँ साम्राज्य-प्राप्ति के प्रति अत्यन्त लोभ ही प्रदर्शित करती हैं। फिर भी, संग्राम का अवसर उपस्थित होने पर संग्राम हेतु उद्यत अपने सम्पूर्ण परिजन, स्वजन, गुरुजन अपने समस्त समाज को देखकर अर्जुन मोहग्रस्त हो गया। ‘अपि त्रैलोक्यराज्यस्य, हेतोः किं नु महीकृते।। अर्थात, हे जनार्दन! पृथ्वी के राज्य के लिए तो क्या त्रैलौक्य के राज्य के लिए भी तो मैं अपने इस बन्धुवर्ग को मारने के लिए तत्पर नहीं हो सकता। ‘यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। हे जनार्दन! निहत्यं एवं अप्रतिकार, शस्त्रास्त्र का प्रयोग न करते हुए मुझको ये धार्तराष्ट्र, दुर्योधनादिक मार भी डालें तो वही मेरे लिए श्रेयस् होगा। मोह के उद्बोधन से लोभ का तात्कालिक शमन हो गया तथापि यह सर्व-कामना-विनिर्मुक्त वैराग्य नहीं। भगवान् श्रीकृष्ण भी कहते हैं- ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।’[3] हे अर्जुन! तू मोह के वशीभूत विवेकशून्य हो अत्यन्त विवेकीजन की तरह बातें करता है; यह तेरा अज्ञान ही है। ‘क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ’[4] हे पार्थ! तू क्लैब्य को मत प्राप्त हो। तात्पर्य कि ‘कण्टकेन कण्टकोद्धारः’ न्यायतः मोह के उद्बोधन से लोभ का तात्कालिक उच्छेद हो गया परन्तु वह वस्तुतः वैराग्य नहीं, अपितु कार्पण्य-दोष ही था। कभी-कभी तत्काल अनर्थ-निवृत्ति हेतु येन-केन-प्रकारेण मन को विषय के प्रबल आकर्षण से हटा लेना ही कर्तव्य है परन्तु भगवत्-चरणारविन्द का श्रयण सर्वोत्तम है। |