गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13पुरुष के सम्पूर्ण प्रयत्न साधन-गोचर होते हैं; प्रयास द्वारा फल स्वयं उद्बुद्ध होते हैं। नाना प्रकार के कर्म दुःख के साधन होते हैं अतः उनमें निषेध होता है। शास्त्रानुसार सत्कर्म सुख के साधन होते हैं अतः उनमें विधि होती है। फलस्वरूप सुखोपभोग विधि-निषेधातीत है। ‘सुखं भेक्तव्यं वा न भोक्तव्यं’ ऐसा कोई विधि-निषेध नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द सार-सर्वस्व हैं, सर्वप्राण परमप्रेमास्पद हैं अतः स्वभावतः सर्वभोग्य हैं एतावता तद्विषयक निषेध असम्भव है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के अधरामृत का रसास्वादन, मुखचन्द्र का दर्शन, श्रीअंग का सौन्दर्य, माधुर्य, सौगन्ध्य, सौरस्यादिकों का अनुभव, पादारविन्द-संस्पर्श सब परमानन्द का ही अनुभव है अतः विधि-निषेधातीत है तथापि इसमें भी तारतम्य स्वीकृत है। ‘पुज्जीभूतं प्रेम गोपाङनानां मूर्तीभूतं भागधेयं यदूनाम्। वेदान्त-वेद्य, अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, अनाम, निर्विकार, निराकार ब्रह्म ही गोपाङनाओं के पुंजीभूत प्रेम, श्यामीभूत श्यामसुन्दर श्रीकृष्णस्वरूप में प्रत्यक्ष हो गया। ‘परमिममुपदेशमाद्रियत्वम् निगमवनेषु नितान्तखेदखिन्नाः। अर्थात भक्त कहता है, निगमाटवी में ब्रह्म के अनुसन्धान में परिश्रांत विद्वद्वरो, हमारा भी, परम शांति प्रदान करने वाला आदेश सुन लो-आप जिस ब्रह्म के अनुसन्धान में परिश्रान्त हैं वह तो गोपिका माता यशोदारानी के प्रांगण में उलूखल में आबद्ध है। गोपाङनाएँ कह रही हैं। |