गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13‘श्रृणु सखि कौतुकमेकं नन्दनिकेतागंणेमया दृष्टम्। अर्थात, हे सखी! एक अत्यन्त विचित्र कौतुक सुनो। वेदान्त-सिद्धान्त, वेदान्त-वेद्य, परान्तर, परब्रह्म ही माता यशोदा के प्रांगण में धूलि-धूसरित हो थेई-थेई नृत्य कर रहा है। 'वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्। अर्थात, पूर्णेन्दु चन्द्रमा के समान जिनका अतुलित सौन्दर्य-माधुर्य है, जिनके कर-पल्लव वंशी-विभूषित हैं, जिनके नेत्र कमल-दलतुल्य हैं ऐसे कृष्णचन्द्र परमानन्द के तुल्य और कोई वस्तु है ही नहीं; सच्चिदानन्दघन आनन्दकन्द परमानन्द श्रीकृष्णस्वरूप से भिन्न कोई तत्त्व है ऐसा में नहीं जानता; तात्पर्य कि श्रीकृष्णस्वरूप ही सर्वोपरि तत्त्व है। अन्ततोगत्वा तात्पर्य यह कि परात्पर परब्रह्म ही श्रीकृष्णस्वरूप में साक्षात् हुए हैं। यावत् इस प्रपंच भी ब्रह्म-स्वरूप हैं: ‘आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते; आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।’[2] सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच ही आनन्द-समुद्र का परिणाम है; जगत् के अणु-अणु, परमाणु-परमाणु में अजर-अमर स्वप्रकाश ब्रह्मानन्द विद्यमान है तथापि अविद्या-आवरण के कारण सम्पूर्ण जगत् सावरण ब्रह्म है। परमानन्द-सार-सर्वस्व, निरावरण ब्रह्म श्रीकृष्णचंद्र सच्चिदानंदघन साक्षात् फलस्वरूप हैं। फल विधि-निषेधातीत है; एतावता आचार्य-कथन हैः ‘येन-केन प्रकारेण मनः कृष्णे निवेशयेत्’ जिस किसी भी भावना से प्रेरित हो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र से अपना संबंध जोड़ लो; यही वेद वेदांग, उपनिषद्-पुराण आदि सम्पूर्ण सत्-शास्त्रों का एकमात्र उपदेश-आदेश है। |