गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13‘ध्येयमापदि’ आपके चरणारविन्द अनन्तकीर्ति, समग्रयश, समग्रश्री तथा समग्र धर्म का आश्रय हैं एतावता आपत्तिकाल में भजनीय हैं। आचार्य शंकर की उक्ति हैः ‘आपदि किं करणीयं?’ ‘स्मरणीयं चरणयुगलमम्बायाः’ आपत्तिकाल में अम्बा के चरणयुगल का निरन्तर स्मरण ही कर्तव्य है। भगवत चरणयुगल का ध्यान करने से ही सम्पूर्ण आपदाओं का समूल उन्मूलन एवं अशेष मंगल का अभिधान होता है। गजेन्द्र, द्रौपदी आदि अनेक आर्त-परा- यण भक्तों का चरित्र प्रत्यक्ष उदाहरण है। हे प्रभो! हम भी आर्त हैं; आपके विप्रयोग-जन्य तीव्रताप से विदग्ध हैं अतः हे रमण! हमारे उरस्थल पर अपने चरणयुगलों को विन्यस्त कर हमारी आर्ति का अपनोदन करें। ‘चरणपंकजं शंतमं च ते’ भगवत-चरणारविन्द शंतमं हैं। ‘बहूनां सुखानां मध्ये अतिशयेन शं यत्यत् शंतमम्’ संसार में अनेक प्रकार के सुख हैं; विभिन्न सुखों में तारतम्य भी है; सर्वोत्तम, सर्वोत्तमृष्ट सुख ही ‘शंतमं’ है। भगवान के चरणारविन्द सर्वानर्थ-निवृत्ति-पुरस्सर परमानन्दस्वरूप तथा ज्ञान-वैराग्य के आश्रय हैं। ज्ञान से वैराग्य से परम-सुख, परमानन्द किंवा मोक्ष की प्राप्ति होती है। एतावता, भगवत के चरणारविन्द सर्व-पुरुषार्थसाधक हैं। गोपांगनाओं के हृदय, अन्तरात्मा एवं रोम-रोम में भगवत-चरणारविन्द सदा- सर्वदा-विन्यस्त हैं तथापि ‘स बाह्याभ्यन्तर अनुभूति’, प्रत्यक्षानुभूति-हेतु ही वे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के मंगलमय चरणारविन्दों को अपने उर-स्थल में विन्यस्त करने की प्रार्थना, अनुनय विनय कर रही हैं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द सुख के साधन भी हैं। सुख स्वरूप भी हैं। श्री बल्लभाचार्यजी ने श्रीमद्भागवत के कुछ अध्यायों को फलाध्याय कहा है। रासपंचाध्यायी भी फलाध्याय ही है। सिद्धान्त है कि यावत् विधि-निषेध साधन-विषयक ही होते हैं; फल विधि-निषेधातीता होता है। उदाहरणतः ‘देव-दत्तः वृक्षं छिनत्ति’ देवदत्त वृक्ष को काटता है। यहाँ वृक्ष के दो टुकड़े हो जाना, वृक्ष का द्वैधी-भावरूप ही फल है में वृक्ष के द्धैधी-भावरूप फल में पुरुषकृत व्यापार नहीं है; साधन-गोचर कुठार के उद्यमन एवं निपातन में ही पुरुषकृत व्यापार है। गोचर कुठार का उद्यमन एवं निपातन क्रमबद्ध चलते रहने पर भी तत् प्रक्रिया फल-स्वरूप वृक्ष का द्वैधीभाव स्वयं उद्बुद्ध हो जाता है। |