गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13अस्तु, सम्पूर्ण धर्मानुष्ठानों के अर्पण के आश्रय भगवत्-चरणारविन्दों की धर्माधिकरणता स्वतः सिद्ध है। ‘धरणि-मण्डनं’ भगवत्-पादारविन्द धरणी के अलंकार हैं; भगवत्-पादार-संस्पर्श को पाकर धरणी धरित्री धन्य-धन्य हो रही है। ‘परसि राम-पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा।।’[1] वृन्दावन की भूमि को निरावरण भगवत्-पाद-पंकज संस्पर्श मिला। इस संस्पर्श से वृन्दावन के पाषाण भी द्रवित हो गए; नवनीत से भी अधिक कोमल, द्रवित पाषाण-खण्डों में भगवत्-पदारविन्द स्पष्टतः अंकित हो गए। भगवान की तीन शक्तियाँ- श्री, भू एवं नीला हैं। अनन्त ब्रह्माण्ड को ऐश्वर्याधिष्ठात्री शक्ति श्री, अनन्तानन्द की अधिष्ठात्री शक्ति नीला, तथा अनन्त वैभव की अधिष्ठात्री शक्ति भू किंवा धरणी। धरणी के सौभाग्यातिशय में गोपाङपाएँ अनेक भाव अभिवक्त करती हैं; वे धरिणी से पूछने लगती हैं- ‘किं ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङघ्रिस्पर्शोत्सवोत्पुलकितागंरुहैर्विभासि। अर्थात, हे धरित्री बहन! तुमने कौन सा ऐसा गंभीर तप किया है जिसके फलस्वरूप तुमको हमारे मदन-मोहन श्यामसुन्दर के निरावरण चरणारविन्दों का सौभाग्यतिशय प्राप्त हुआ। हे बहन! हमें भी बता दो ताकि हम भी वैसा ही तप करें ताकि हमें भी अपने उरस्थल में श्यामसुन्दर के पादारविन्द-विन्यास का सौभाग्यातिशय प्राप्त हो। श्रीमद्भागवत में वर्णन है भगवान श्रीकृष्ण ने गोपाङनाओं से पृथक् होकर किसी ‘एका’ सखी को एकान्त में ले जाकर श्रृंगार किया, उनको दिव्य भूषण-वसन-अलंकारादिकों से अलंकृत किया। वृषभानुकुमारी, राधारानी ही यह ‘एका’ विशिष्ठ सखी हैं। राधारानी को मण्डन करने वाले श्रीकृष्णचन्द्र‚ श्यामसुन्दर ने धरणी का भी मण्डन किया। तात्पर्य कि विशेष रसदशा में भगवान ने धरती के उरोजों पर अपने मंगलमय पादारविन्द विन्यस्त किये। तद्वत् भावों की परिकल्पना करती हुई गोपाङनाएँ कह रही हैं “हे प्रभो! जैसे आपने श्रीराधारानी के उरस्थल पर अपने चरणारविन्दविन्यस्त किए, वैसे ही, धरणी, भू-देवी के अरस्थल पर भी अपने पाद-पंकजों को मण्डित किया; आप अत्यन्त रसिक हैं; अतः हम आपकी अनुरागिणी परम प्रेयसी जनों के उर-स्थल पर भी अपने चरणारविन्दों को विन्यस्त करें।” |