गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 370

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 13

‘सत्यज्ञानान्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः।
अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्यु पनिषद्दृशाम्।।’[1]

अर्थात जो सत्य, ज्ञान एवं आनन्दमात्रस्वरूप एकरस हैं वही अदृश्य, अग्राह्य, अलक्ष्य, अचिन्तय, अव्यपदेश्य भी विशुद्ध सत्त्वादि के सन्निवेश से साकार, सगुण सच्चिदानन्दघनस्वरूप में प्रादुर्भूत है। जैसे, दूर-वोक्षण-यंत्र द्वारा सूर्य-स्वरूप विशेषतः परिलक्षित होता है, वैसे ही, विशुद्ध सत्त्व सन्निवेश के कारण सर्वाधिष्ठान सर्वान्तर्यामी प्रभु भी विशेषतः सौन्दर्य-माधुर्य-सौरस्य गुण-संयुक्त अनुभूत होते हैं। वैष्णव-मतानुसार यह विशुद्ध-सत्त्व ही अचिन्त्य दिव्य अंतरंग लीलाशक्ति है। ‘माया तु वर्ण ज्ञानं’ माया का अर्थ वर्ण है; माया का अर्थ ज्ञान है; माया प्रभा है; अचिन्त्य, दिव्य, भगवदीय, अन्तरंगा शक्ति भास्वती भगवती की अनुकम्पा के प्रभाव से ही सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच का प्राकट्य होता है।
ब्रह्मा भी दो प्रकार के होते हैं-

‘आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते; आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।’[2]

जिससे अखण्ड ब्रह्माण्ड उत्पन्न, स्थित एवं प्रविलीन हो जाता है, वह ईश्वर-स्वरूप ईस्वर-अभिन्न है। अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड है; प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अपने-अपने ब्रह्मा हैं; अश्वमेघ-अवभृथोपासना आदि द्वारा जीव ही ब्रह्मा बन जाता है; अस्तु इन ब्रह्माओं में जीव एवं ईश्वर-धर्म दोनों ही दृष्टिगोचर होते हैं; ब्रह्माण्ड के अधिपति ब्रह्मा को ही भगवान् श्रीकृष्णस्वरूप में सनदेह हुआ; तत्क्षण सम्पूर्ण गोधन, गो-वत्स एवं तत्-तत् वसन-भूषणादि स्वरूप में आविभूर्त होकर भगवान् ने ब्रह्मा का मानभंग कर दिया; सम्पूर्ण उहापोह, सन्देह-विनिर्मुक्त हो ब्रह्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के ‘प्रणत-कामदं’ चरणारविन्द की अर्चना करते हैं।

अथवा ‘पद्मजार्चितं, पद्मजया अर्चितं’ महालक्ष्मी द्वारा अर्चित; भगवत्-पदारविन्द पद्मज एवं पद्मजा दोनों की ही अर्चा के आस्पद हैं; तात्पर्य कि भगवत्-पदारविन्द ही सांगोपांग धर्माधिकारण है; धर्माधिकरण में ही धर्मानुष्ठान, पूजन-अर्चन सम्भव है-‘निश्चयरूपेण तुभ्यमेव समर्पितं’ यज्ञ, तप, दान, व्रतादि सम्पूर्ण भगवत्-चरणारविन्दों में ही अर्पित किए जाते हैं; बन्धन के हेतु कर्म भी मुक्ति-फल-प्रदायक हो जाते हैं जैसे विशिष्ट संस्कारों द्वारा शोधित होकर मारक विष भी स्वास्थ्य-प्रदायक विशिष्ट औषध बन जाता है वैसे ही, प्रभु-पाद-पंकजों में अर्पित कर्म सर्व-प्रकार के बन्ध के निवर्तक बन जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री0 भा0 10/13/54
  2. तै03/ 3./6

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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