गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13अर्थात, कारणात्मक प्रपञ्च ही अजर, अमर, अनन्त, अखण्ड, स्वप्रकाश ब्रह्म है। तद्भिन्न कोई सत्ता नहीं। कवि कहता है ‘अरबरात निसि दिन मिलबे को, मिले रहत मानो कबहुँ मिले ना।’ यर्थाथ में तद्भिन्न होते हुए भी अत्यन्त उत्कट उत्काण्ठावशात् मिलन-हेतु अनुनय-विनय प्रीत्युत्कर्षजन्य चमत्कृति है। अर्थात दृष्ट और आनुश्रविक, लौकिक एवं परलौकिक सर्वविधि सुख से जो वितृष्णा, निष्कामता है वह वशीकारसंज्ञक वैराग्य है। दृष्टापुश्रविक विषय से वितृष्णा होने के अनन्तर ही सम्यक् श्रवण, मनन, निदिध्यासन, तदनन्तर तत्पुरुष,याति होती है। अर्थात प्रवृत्त राजसभावप से द्वेष नहीं करता; पुरुष स्वरूप का अपरोक्ष साक्षात्कार हो जाने पर गुणों में भी वितृष्णा हो जाती है। ऐसे वैराग्य-संपन्न-साधुपुरुष सर्व-कामना-विनिर्मिक्त हो जाते हैं।
सर्वकाम-विनिर्मुक्त, आप्तकाम, पूर्णकाम, परम-निष्काम आत्माराम को ही भगवान् के मंगलमय चरणारविन्द में अनन्य अनुराग होता है। उरस्थल में भगवत्-पाद-पंकज का विन्यास इस अनन्य अनुराग का ही विन्यास है।
‘पद्मजार्चितं, पद्मजेन ब्रह्मणा अर्चितं’ पद्मज ब्रह्मा के द्वारा अर्चित, भगवान् श्रीकृष्ण के पाद-पंकज कमलयोनि ब्रह्मा द्वारा अर्चित हैं।
श्री गोपाङनाएँ कह रही हैं ‘वृद्धैः ब्रह्मादिभिरपि वन्द्यमानचरणः’ जब हमारे श्यामसुन्दर गोचारण के बाद संध्याकाल में घर लौटने भी लगते हैं तो ये ब्रह्मादि वुद्धाजन प्रणाम-दण्डवत् करते हुए विलम्ब का हेतु बन जाते हैं। ‘को वेत्ति भूमन् भगवन्परात्मन् योगेश्वररोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम्। अर्थात, हे प्रभो! मायातः माया के कारण ही आपके नित्यसुखबोध-स्वरूप में ही अविचारतः रमणीय, स्वप्न-तुल्य जगत् उदित होता प्रतीत होता है। |