गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13तैत्तिरीय श्रुति है- ‘को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाशं आनन्दो न स्यात्’[1]। अर्थात् भगवत्-विप्रयोग-जन्य तीव्र-ताप-दग्ध प्राणी क्यों-कर प्राण धारण कर सकता, क्योंकर चेष्टा कर सकता, यदि परमानन्दघन आकाश आनन्द, अपरिच्छिन्न आनन्दस्वरूप परमानन्दघन ही प्राणिमात्र के हृदय में अधिष्ठित हो उसका आप्यायन एवं रक्षण करते हैं; अधिष्ठानभूत परमत्व के आधार पर ही प्राण एवं अपान का रक्षण एवं आप्यायन होता है। पूर्व-प्रसंग में प्राणापान की गति-सम्बन्धी विस्तृत चर्चा की जा चुकी है। मान्य है कि भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, वृन्दावन का त्याग कदापि नहीं करते। पूर्व-प्रसंग में बताया जा चुका है कि लोकदृयट्या भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूर के साथ मथुरापुरी पधारे तथापि उनका पूर्वतम पुरुषोत्तमस्वरूप वृन्दावन में ही प्रतिष्ठित रहा। इसी तरह गोपाङनाएँ भी अन्तःकरणस्थित सर्वाधिष्ठानभूत भगवत्-स्वरूप का अनुभव करती हुई भी बाह्यतः भी श्रीकृष्णचन्द्र-चरणार विन्द-संस्पर्श की स्पष्टानुभूति की कामना से विफल हैं। सर्वाधिष्ठानभूत, सर्वान्तर्यामी के मंगलमय विग्रह का, अंग-प्रत्यंग का निरन्तर ध्यान एवं पूजन ही भक्त की कामना है। भक्त ‘स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः’ का ही रसिक है। भगवान् योगमायासमावृत हैं। शंकराचार्यजी कहते हैं, ‘भगवान् परिभू हैं; परिभवति इति परिभूः परितः चतुर्दिक्षु भवति इति परिभूः’ जो सर्वव्याप्त है वही ‘परिभू’ है ‘यस्य उपरिभवति यश्च उपरिभवति स सर्वः स्वयमेव भवति इति स्वयंभूः’ अर्थात्, जो सर्वव्याप्त सर्वत्र-व्याप्त और जहाँ जिस पर व्याप्त है वह सम्पूर्णतः स्वयं ही उद्बुद्ध है, स्वयंभू है। |