गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12‘दर्शयन् मुहुः’ विभिन्न प्रसंगों से बारम्बार दर्शन देकर ‘मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि’ हे वीर! आप ही बलात् हमारे मन में स्वविषयक स्मर उत्पन्न करते हैं। ‘नीलकुन्तलैः घन-रजस्वलं’ नील कुन्तल तमोगुण एवं रज रजोगुण का सूचक है। श्रीयुत् रामनारायण जी कृत ‘भाव-विभाविका’ नामक एक ग्रन्थ है। इसके अनुसार भगवान् का दिव्य स्फुट हास्ययुक्त विशुद्ध सत्त्वात्मक मुखचन्द्र का दर्शन ही सर्व प्रकार के राग-कामादि दोषों का समूल उन्मूलक है। गोपाङनाओं को तो भगवान् के गोरज-छुरित तथा कुटिल स्निग्ध कृष्ण अलकावलि-समावृत्त मुखचन्द्र के ही दर्शन होते हैं। ‘रजो रंजनात्मकं’ रज रंजनात्मक होता है। लौकिक राग जनन-मरणअविच्छेद-लक्षणा संसृतिकारक है अतः सर्वथा निंद्य एवं त्याज्य है परन्तु भगवद् मुखारविन्द दर्शन का राग सम्पूर्ण पाप-ताप-शमन-कर्ता है अतः सर्ववन्द्य एवं अत्यन्त स्पृहणीय है। ‘रजः सत्त्वाभ्यां सृष्टिपालकः भगवान् के नेत्रों में अरुणिमा भी है। यह अरुणिमा रजोगुण का ही सूचक है। रजोगुण द्वारा भगवान् भक्तों के अभीष्ट की रचना करते हैं। भगवान् के नयनों की स्वच्छता सत्त्व का परिचायक हैः ‘सत्त्वगुण द्वारा भगवान् भक्त के ‘योगक्षेमं बहाम्यहम्’[1] योगक्षेम का बहन करते हैं। रजोगुण द्वारा भगवान् भक्त को अप्राप्त की प्राप्ति कराते हैं तथा तमोगुण द्वारा उसकी रक्षा, पालन करते हैं। भगवद्-मुखारविन्द ‘घन रजस्वलं’ गोधन की रज से स्वलंकृत है; रज में रंजन होता है, तात्पर्य आसक्ति उत्पन्न होती है। नील-कुन्तल’ श्यामता के सूचक है; श्यामता तमोगुण का परिचायक है; तमोगुण द्वारा मोह उत्पन्न होता है। तात्पर्य कि रज से स्वलंकृत मुखारविन्द के दर्शन से गोपांगनाओं में भगवान् के प्रति आसक्ति उद्भूत होती है और नील कुन्तल आवृत मुखारविन्द-दर्शन से वह आसक्ति मोह में परिणत होती है। कुटिल कुन्तल जैसी उक्ति से सम्पूर्ण ऊहापोह-शून्य, सम्पूर्ण इतर राग-विस्मरणपूर्वक प्रभु मुखारविन्द- सौन्दर्य-दर्शन में तल्लीनता ही विवक्षित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद् गीता, 9/22