गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 348

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 12

एक बार भी पूर्ण विश्वास के साथ भगवन्नामोच्चारण करने पर प्राणी निर्मल, निष्कलंक, परम-पवित्र अनेकानर्थ विभुक्त हो जाता है; परिणमतः जीव एवं ब्रह्म के मूलतः सख्य-सम्बन्ध-ज्ञान से जीव में भगवद्-सम्मिलन की आशा-कल्पलता अंकुरित हो जाती है।

‘नाम्नोऽस्य यावती शक्तिः पापनिर्हरयो मम।
तावत् कुर्तुम् न शक्नोति, पातकं पातकी जनः।।’[1]

अर्थात भगवान में पाप-शमन की शक्ति अत्यन्त गर्हित पातकी की पाप-कर्म करने की सम्पूर्ण शक्ति में अधिक प्रबल है।

“कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरे-
रूपासने स्वे हृदि छिद्रवत् सतः।
स्वस्यात्मनः सख्युरशेषदेहिनां
सामान्यतः किं विषयोपपादनैः।।”[2]

भक्त प्रह्लाद कह रहे हैं, हे असुरबालको! हरि की उपासना करने में कौन प्रयास करना है? वे तो तुम्हारे अन्तर्यामी ही हैं; हरि सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ हैं। पूर्व प्रसंगों में इन सब विषयों पर विस्तृत विवेचना की जा चुकी है। तात्पर्य यह कि परमात्मा से तादात्म्य सम्बन्ध होते हुए भी अनेकानर्थ-परिप्लुत जीव विभ्रान्त ही विप्रयोग की कल्पना कर दुःखी हो जाता है परन्तु भगवन्नामोच्चारण से अधिक मल का निक्षेप होता है, मल-निक्षेप से मूल-सम्बन्ध का ज्ञान होता है। मूल-सम्बन्ध के परिज्ञान से भगवद्-सम्मिलन की उत्कट- उत्कण्ठा एवं तज्जन्य प्रयास सम्भव होता है; साथ ही, भगवान भी भक्तानुग्रह कर भक्त-हृदय में बलात् स्वविषयिणी प्रीति उद्बुद्ध करते हैं; भगवान श्रीकृष्णचन्द्र श्री गोपाङनाओं के आप्तकाम, पूर्णकाम, परम निष्काम हृदयों में भी स्वविषयिनी कामना को आग्रहपूर्वक प्रेरित करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्क. पु. वैष्णव खण्ड, मार्गशीर्ष माहात्मय, अध्याय 15, श्लोक 53
  2. श्रीमद्भागवत्, 7’,7/38

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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