गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12एक बार भी पूर्ण विश्वास के साथ भगवन्नामोच्चारण करने पर प्राणी निर्मल, निष्कलंक, परम-पवित्र अनेकानर्थ विभुक्त हो जाता है; परिणमतः जीव एवं ब्रह्म के मूलतः सख्य-सम्बन्ध-ज्ञान से जीव में भगवद्-सम्मिलन की आशा-कल्पलता अंकुरित हो जाती है। ‘नाम्नोऽस्य यावती शक्तिः पापनिर्हरयो मम। अर्थात भगवान में पाप-शमन की शक्ति अत्यन्त गर्हित पातकी की पाप-कर्म करने की सम्पूर्ण शक्ति में अधिक प्रबल है। “कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरे- भक्त प्रह्लाद कह रहे हैं, हे असुरबालको! हरि की उपासना करने में कौन प्रयास करना है? वे तो तुम्हारे अन्तर्यामी ही हैं; हरि सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ हैं। पूर्व प्रसंगों में इन सब विषयों पर विस्तृत विवेचना की जा चुकी है। तात्पर्य यह कि परमात्मा से तादात्म्य सम्बन्ध होते हुए भी अनेकानर्थ-परिप्लुत जीव विभ्रान्त ही विप्रयोग की कल्पना कर दुःखी हो जाता है परन्तु भगवन्नामोच्चारण से अधिक मल का निक्षेप होता है, मल-निक्षेप से मूल-सम्बन्ध का ज्ञान होता है। मूल-सम्बन्ध के परिज्ञान से भगवद्-सम्मिलन की उत्कट- उत्कण्ठा एवं तज्जन्य प्रयास सम्भव होता है; साथ ही, भगवान भी भक्तानुग्रह कर भक्त-हृदय में बलात् स्वविषयिणी प्रीति उद्बुद्ध करते हैं; भगवान श्रीकृष्णचन्द्र श्री गोपाङनाओं के आप्तकाम, पूर्णकाम, परम निष्काम हृदयों में भी स्वविषयिनी कामना को आग्रहपूर्वक प्रेरित करते हैं। |