गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12उत्कट उत्कण्ठा के कारण तीव्र प्रयास होता है; परिणामतः फल-प्राप्ति सम्भव होती है परन्तु निराशा पिशाची से वस्त होने पर उत्कण्ठा एवं प्रयास दोनों में ही न्यूनता आ जाती है। परिणामतः फल-प्राप्ति भी दुर्लभ हो जाती है। यदा-कदा कुछ विशिष्ट भगवद्-भक्त अपने आराध्य में अखण्ड, अनन्य प्रेम रखते हुए भी तत्-भाव निरपेक्ष रहते हैं, जैसे, अनन्य, अखण्ड, एकांगी प्रेम को अपने हृदय में सँजाये हुए मीन जल के प्रति अथवा चातक मेघ के प्रति सदा-सर्वदा समर्पित रहते हुए भी तत्-भाव-निरपेक्ष ही रहता है। सामान्यतः प्राणीमात्र में स्पृहा होती है कि हमारा प्रेमास्पद हम से प्रेम करे; परस्पर सख्यभाव के आधार पर ही आशालता अंकुरित हो सकती है। श्रुति वाक्य है -“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया जीवात्मा अनेकानर्थ-परिप्लुत हैं, ब्रह्म निर्विकार है, तथापि दोनों में ही मूलतः सादेश्य, सायुत्य एवं साजात्य सख्य सम्बन्ध है। जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तर से जीवात्मा अनेकानर्थ परिप्लुत होकर परमात्मा के साथ अपने मूलतः सख्य सम्बन्ध से विस्मृत हो जाता है। जैसे तरंग एवं जल, घटाकाश एवं महाकाश एवं महाकाश का सम्बन्ध अभिन्न, अनंत एवं अनन्य है, वैसे ही जीवात्मा एवं ब्रह्म का संबंध भी अभिन्न, अनन्त एवं अनन्य ही है। वस्तुतः इस नित्य-सम्मिलन के होते हुए भी अनेकानर्थ-परिप्लुत हो भवाटवी में भटकते हुए जीवात्मा को भगवत्-विप्रयोग की भ्रान्ति होती है- ‘आनंदसिन्धु मध्य तव बासा। बिन जाने कत मरिस पियासा।।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋ0 सं0 11164/20