गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 346

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 12

“दिन परिक्षये नील कुन्तलैर्वनरुहाननं” पद की भी वल्लभाचार्यजी कृत व्याख्यानुसार ‘वनरुहाननं’ शब्द कुवलय अर्थवाची है। कुवलय का विकास चन्द्रमा के योग से रात्रिकाल में ही होता है। जैसे, चन्द्रमा के उदित होने पर ही अव्यवधान-पुरस्सर न होने पर भी कुवलय, कुमुदिनी प्रफुल्लित हो जाती हैं, वैसे ही, परमानन्द-कन्द, आनन्द-कन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के आविर्भाव मात्र से ही कुमुदिनीरूपा गोप-बालिकाओं अपने-अपने घरों में रहती हुई प्रफुल्लित हो उठीं। गोप-बालिकाओं का कथन है-‘स्मरं बिभ्रत नः मनसि स्मरम् अर्पयसि’ अर्थात, आप ही स्मरण को धारण कर हमारे मन में अर्पित करते हैं।

गोपाङनाएँ परमानन्द-कन्द, आनन्द-सिन्धु, श्रीकृष्णचन्द्र की वीचि, तरंग हैं अतः तदवत् तद्भिन्न, तद्रूप अचिन्त्य, अनन्त, परमानन्दघन, स्वप्रकाश, अखण्ड-बोध स्वरूपा ही हैं, एतांवता उसमें भी आप्तकामता, पूर्णकामता, परमानिष्कामता, योगमाया के प्रसरण द्वारा स्वयं अपने में और अपने भक्तों में मोह उद्बुद्ध करते हैं क्योंकि आसक्ति एवं अनुराग-राहित्य में लीलाएँ सम्भव ही नहीं हो सकतीं; यदि श्यामसुन्दर, व्रजेन्द्रनन्दन, मदन मोहन-श्रीकृष्ण आप्तकाम, पूर्णकाम, परम निष्काम, आत्माराम होने के कारण राधारानी में आसक्त न हों तो रासलीला ही असम्भव हो जाय। रासलीला के अभाव में श्रृंगारशास्त्रा-नुमोदित रीति से रसास्वाद, जो यहाँ अपेक्षित है सम्भव नहीं। अस्तु, बारम्बार कहा गया है कि क्रिया सर्वत्र समान होते हुए भी लौकिक काम-व्यतिरिक्त है। इस विषय का विस्तृत विवेचन, पूर्व प्रसंगों में किया जा चुका है।

गोपाङनाएँ भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति ‘वीर’ सम्बोधन का प्रयोग करती हैं। ‘स्मरं बिभ्रत् नः मनसि यच्छसि अर्पयसि’ अर्थात् हे वीर! स्मर को धारण कर आप हमारे मन में अर्पण करते हैं; तात्पर्य कि किसी भी सामान्य प्रेरणा-वशीभूत हो हमारे मन में स्मर उदित हो नहीं हो पाता परन्तु आप बलात् हमारे हृदय में स्मर उद्बुद्ध कर अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहे हैं। अथवा ‘विविधम् ईरयति इति वोरः तत्सम्बुद्धौ’ हे वीर! विविध प्रकार से प्रेरणा देने वाले! आननं वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्’ सामान्यतः ‘आननं’ पद का अर्थ मुख ही होता है परन्तु श्लेषेण ‘आ ईषदपि न याज्चा न अस्वीकारो यस्मिन् तत्’ प्राप्ती की आशा होने पर ही तीव्र उत्कण्ठा होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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