गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 345

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 12

श्रीकृष्ण- विग्रह पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश पंच-तत्त्वों से निर्मित मायिक कलेश्वर नहीं अपितु सच्चिदानन्द-रस-सार-असर्वस्व-पंक-समुद्भूत सरोज हैं। इस सरोज की अद्भुत अलौकिक शोभा, आभा, प्रभा, अवर्णनीय हैः यहाँ तक की स्वयं वे ही अपने इस बलरूप पर मोहित हो जाते हैं-

“रत्नस्थले जानु चरः कुमारः
संक्रान्तमात्मीय मुखारविन्दम्।
आदातुकामस्तदलाभखेदात्
निरीक्ष्य धात्रीवदनं रुरोद।”

अर्थात, यशोदा जी के मणिमय प्रांगण में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण प्रांगण की मणियों में अपने प्रतिबिम्ब को निहार कर उस पर मोहित हो जाते हैं और उनको लेने के लिए मचल उठते हैं।
गोस्वामी जी कहते हैं-

“रूपराशि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी।।”[1]

अपने ही प्रतिबिम्ब के अतुलित सौन्दर्य-माधुर्य को देखकर स्वयं प्रभु बालक रामचन्द्र भी नाच उठते हैं। ‘रसोद्रेके नर्तनं भवति’ नृत्य, रसोद्रेक का परिणाम है। आनन्द से नाच उठे’ सामान्य उक्ति है। रस की यथार्थानुभूति-हेतु तदनुकुल स्तर अनिवार्य है, यथा, राजराजेश्वरी, त्रिपुर-सुन्दरी षोडशी श्री ललिता पराम्बा का लोकेत्तर सौन्दर्यमय स्वरूप ‘परम शिव दृङ्मात्र विषयीः’ एकमात्र भगवान् शिव की दृष्टि का ही गोचर है। इसी तरह वृषभानु-नन्दिनी’ नित्यनिकु जेश्वरी, रासेश्वरी राजधानी एवं परमानन्द आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के लोकोत्तर सौन्दर्य-स्वरूप का वास्तविक दर्शन परस्पर इनके लिए ही सम्भव है, अन्य के लिए नहीं। आनन्दकन्द परमानन्द भगवान् श्रीकृष्णचनद्र का स्वरूप अनंतकोटि कंदर्प-दर्प-दमन पटीयान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, उत्तर, 76/8

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
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