गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12गोपागनाएँ कहती हैं-“गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणु र्दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम्। हे सखि! यह वेणु हमारे मदन-मोहन, श्याम-सुन्दर के अधरामृत को भोगता है। वेणु का उच्छिष्ट रस ही वेणु-छिद्रों से नाद रूप में प्रवाहित होता है ‘जिसका पान कर वृन्दावन के सरोवर एवं सरसियाँ भी रोमांच कण्टकित हो जाते हैं; सरोवर एवं सरसियों में खिले हुए कमल-कमलिनी, कुमुद-कुमुदिनी ही उनकी रोमांचोद्गति है। हे सखि! यह वेणु तो जड़ है अतः ‘दर्वी पाकरसं यथा’ भगवत्-अधरामृत रसास्वादन में असमर्थ है। इस वेणु रूप चषक के माध्यम से गोपाङपाएँ ही भगवत्-अधरामृत का आस्वादन कर रही हैं। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का अधरामृत ही वेणु-छिद्रों में निक्षिप्त हो वेणु-पीयूष रूप से गोपाङनाओं के निवारण कर्ण-कुहरों द्वारा उनके अन्तःकरण में प्रविष्ट होता है। लौकिक रसों का आस्वादन करने में केवल भोक्ता ही समर्थ है परन्तु भगवदीय सम्पूर्ण सौन्दर्य-माधुर्य सौरसय रस की गति विलक्षण है; इस अद्भुत रस के कथंचित् आस्वादन से ही ब्रह्मादि देव शिरोमणि गण भी अपने आप को कृतार्थ मानते हैं। इन्द्रिय रूप पान-पात्र के माध्यम से तत्-तत् इन्द्रिय के अधिष्ठातृ देवता ही रस के यथार्थ भोक्ता हैं। उदाहरणतः नेत्रों द्वारा भगवत्-सौन्दर्य-माधुर्य का आस्वादन किए जाने पर नेत्रों के अधिष्ठातृ देवता आदित्य ही उस भगवदीय सौन्दर्य-माधुर्य-रस का आस्वादन करते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय एवं बुद्धि इन एकादश इन्द्रियों के अभिमानी देवता भी भिन्न-भिन्न हैं; बुद्धि के अभिमानी देवता ब्रह्मा, रसना के अभिमानी देवता वरुण, घ्राण के अभिमानी देवता अश्विनीकुमार, श्रौत्र के अभिमानी देवता दिक्देव, पाद के अभिमानी देवता विष्णु आदि हैं। कहीं-कहीं मन, चित्त एवं अहंकार की भी गणना कर देहाभिमान देवताओं की संख्या चतुर्दश भी मानी गई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री भा0, 10/21/9