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गोपी गीत -करपात्री महाराज
गोपी गीत 10
विरह का अन्तिम फल है आन्तर-रमण।
‘संगम विरहविकल्पे वरमिह विरहोन संगमस्तस्याः’
संगम और विरह में किसी एक का वरदान मिलता हो तो भक्त विरह ही माग लेता है क्योंकि संगम में तो प्रियतम का दर्शन एक स्थानीय होता है जबकि विरह में सदा-सर्वदा-सर्वत्र ही सर्वस्वरूप में प्रिय का ही दर्शन होता रहता है।
‘विरहीव विभो प्रियामयं परिपश्यामि भवन्मयं जगत्’
हे प्रभु!
‘प्रासादे सा दिशि च सा पृष्ठतः सा पुरःसा
पर्यके सा पथि पथि च सा तद्वियोगातुरस्य।
हंहो चेतःप्रकृतिरपरा नास्ति मे कापि सा सा
‘सा, सा सा जगति सकले कोऽय मद्वैत वादः।’
जैसे विरही जगत् को प्रियामय देखता है, वैसे ही मैं भी आपको सदा-सर्वदा-सर्वव्याय अनुभव करूँ। यही आन्तरण रमण है।
कल्प-कल्पान्तरों के जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य-परिपाक से प्राणी में श्रीकृष्ण-विषयक अनुराग प्रादुर्भूत होता है। पर वह सीमित नहीं रह जाय तभी उसका महत्त्व या पूर्णता है। श्रीश्याम-सुन्दर, मदन-मोहन, व्रजेन्द्रनन्दन की कोटि-कोटि कंदर्प-दलन पटीयसी मनोहारिणी छवि निहारने के लिए सब प्रपंच भूल जायं, व्याकुलता क्रमशः वृद्धि प्राप्त होती रहे, मन तड़पने लगे, अस्वस्थ हो जाय, धैर्य छूट जाय, तभी इसका महत्त्व है, तभी सफलता है। जितनी अधिक व्याकुलता, व्यग्रता, बेचैनी बढ़ेगी अनुराग में उतनी ही अधिक उत्कृष्टता आयेगी। पुत्र, धन, दारा, नेह, गेह के न मिलने पर तो अधैर्य सभी को होता है और वह स्वाभाविक भी है परन्तु भगवदर्थ अधैर्य, व्याकुलता, अस्वस्थता का होना अत्यन्त दुर्लभ है; एतावता जो लोक में दूषण है, वहीं यहाँ भूषण है।
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