गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 10ब्रह्मादि देव-शिरोमण एवं अमलात्मा परमहंस योगीन्द्र मुनीन्द्र भी जिसका ध्यान कर रहें है वे परात्पर स्वयं किस के ध्यान में मग्न हैं? युधिष्ठिर की आहट पाकर भगवान् श्रीकृष्ण ने आखें खोलीं और युधिष्ठिर से बैठने के लिए कहा। महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से अपना संदेह निवेदन करते हुए स्पष्टीकरण हेतु प्रार्थना की। महाराज श्रीकृष्ण ने कहा ‘कुरुक्षेत्र की युद्धस्थली में शर शैय्या पर पड़ा भीष्म मेरे ध्यान में तल्लीन है अतः मैं भी अपने भक्त का ध्यान कर रहा हूँ। ‘मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि’ भक्त मुझसे भिन्न कुछ नहीं जानता और मैं भी भक्त से भिन्न कुछ नहीं जानता। ‘श्री राधामेव जानन् व्रजपतिरनिशं कुन्जवीथी मुपास्ते। अर्थात्, विश्व प्रपंच की सृष्टि, पालन एवं संहार कृष्ण की ईश्वरी शक्ति का कार्य है; वे तो नारदादिक भक्तों को भी नहीं मिलते; श्रीकृष्ण तो अहर्निश रासेश्वरी, नित्य-निकुन्जेश्वरी, राधारानी के ही ध्यान में निमग्न रहते हैं। तात्पर्य कि भक्त को भगवान् में निजत्व का अभिमान होने पर भगवान को भी भक्त में अनुराग होता है। भक्त कहता है-‘ना मैं देखूं, और को ना तोहे देखन दूं।’ ‘स्वेच्छामयस्य स्वीयानां यथा इच्छा भवति तथैव भगवान् भवति’ भक्त की इच्छामयता ही भगवान् का स्वरूप है। भक्ति-रस परिप्लुत मन से भगवान् भी वैसा ही शरीर धारण कर लेते हैं। अस्तु, प्रत्येक भक्त का भगवान् सर्वथा अपना होता है। भगवान् के प्रति यह ममत्व भाव ही भक्ति का उत्कर्ष है। ‘अभीषामनुवृत्ति वृत्तये’ अनुवृत्ति में प्रवृत्त हेतु भगवान् भी भक्त को परीक्षतः ही भजते हैं। उदाहरणतः कहीं किसी रंक का कदाचित् चिन्तामणि मिल जाय परन्तु दुर्भाग्यवशात् कहीं गिर जाय, किंवा खो जाय तो वह रंक स्वभावतः ही अत्यन्त आकुल-व्याकुल होकर चिन्तामणि के ध्यान में ही निरन्तर रत हो जाता है; इसी तरह विप्रयोग-जन्य तीव्र ताप से प्रेमी-हृदय में भी अत्यन्त उत्कट भावोद्रेक उद्बुद्ध होता है। |