गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 313

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 10

संसार के जन्म-कर्म को सुनते-सुनते प्राणी भवाटवी में ही अधिकाधिक उलझता जाता है परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य-कर्म को सुनने पर प्राणी, जन्म-मरण-लक्षणा-संसृति से विनिर्मुक्त हो जाता है। भक्त ही तो एकमात्र वांछा है-

‘कामिहि नारि पिआरि जिमि, लोभिहिं प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहुं मोहि राम।।’[1]

कामी को कान्ता में अथवा लोभी को धन में जितनी उत्कट अभिलाषा होती है, उससे शतगुणाधिक लोकोत्तर अनुराग भक्त को अपने आराध्य पादाम्बुजों में होता है। इस सम्पूर्ण प्रसंग का अन्ततोगत्वा लक्ष्य यही है कि पूर्वानुराग द्वारा विश्व-बंधन की निवृत्ति तथा भगवत-पदारविन्द संस्पर्श से भगवत्-संयोग-सुख की प्राप्ति हो एवं भगवत्-स्वरूप में मन को पूर्ण निरोध हो जाय। निरोध के भी तीन भेद हैं, प्रेम-निरोध, आसक्ति निरोध एवं व्यसन-निरोध। आसक्ति-निरोध ही उच्चतम स्थिति है। परात्पर परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्र स्वयं नित्य अखण्ड एवं एकरस हैं, उनकी लीलाएँ भी नित्य अखण्ड एवं एकरस हैं, गोपांगनाएँ भी नित्य, अखण्ड एकरस हैं, गोपांगनाओं का अपने प्राणधन प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ सम्मिलन भी नित्य, अखण्ड एवं एकरस ही है।

‘वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति।’

पारमार्थिक दृष्टया व्रजांगनाओं का श्रीकृष्ण से कदापि वियोग नहीं होता तथापि व्यवहारतः श्रीकृष्ण मथुरा पधारे फलतः गोपियों की आजीवन उनके वियोग का दारुण दुःख भोगना पड़ा।
सिद्धान्त है कि भगवदीय-लीला के तीन प्रभेद हैं-प्रकट लीला, अप्रकट लीला तथा प्रकटाप्रकट लीला।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस, उत्तर 130 ख

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
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