गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 312

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 10

नित्य-निकुंजेश्वरी, श्री राधारानी के लिए स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही चिंतित हों ललिता आदि से कह रहे हैं-

‘पूर्वानुरागगलितां मम लम्भनेऽपि लोकापवाददलितामथ मद्वियुक्तौ।
दवानलज्वलितजातिवनीसदृक्षामेतां कथं कथमहो बतसान्त्वयामि।।’

अर्थात, ले ललिते! यह राधारानी तो मेरे पूर्वराग में ही गलित हो गई; मेरे सम्मिलन का आनन्दाद्रेक भी लोकापवाद के भीषण संताप से प्रभावित है; मेरे वियोग में तो दवानल दग्धा यह जाति लता, यूथिका लता की तरह मेरे वियोगजन्य तीव्रताप से दग्ध हो भस्मीभूत हो जाती है।हे सखी! ललिते! बताओ तो मैं इनको किस प्रकार सान्त्वना दूँ? तात्पर्य कि कुल-ललना के लिए लोकापवाद का ताप इतना दुस्त्यज होता है कि प्रियतम सम्मिलन के आनन्दोद्रेक में भी उसका भान बना ही रहता है।
उपर्युक्त सम्पूर्ण उक्तियों का तात्पर्य यही है कि सम्पूर्णतः आत्म-समर्पण करने पर ही जीवात्मा का परमात्मा से सम्मिलन संभव है; किसी प्रकार का भी लौकिक बाध शेष रह जाने पर जीवात्मा-परमात्मा का सम्मिलन सर्वथा असम्भव हो जाता है। जैसे सिंहनी का दूध सूवर्णपात्र में दुआ हुआ विशेष लाभदायी होता है किन्तु अन्य पात्र में दुहे जाने पर पात्र के ही विनाश का कारण बन जाता है। वैसे ही, उपर्युक्त उक्तियों के मर्म को समझने पर ही प्राणी का उत्कर्ष संभव है, अन्यथा अनर्थ एवं अपकर्ष का कारण बन सकता है।

‘जन्म कर्म च दिव्यमेवं योमेवेत्ति तत्त्वतः।
'त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।’[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (श्री0 गी0 4/9)

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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