गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 9अर्थात कोई गोपागंना अपनी सखी से कह रही है, हे सखी! यदि अपनी इस प्राणप्रिय सखी को एक क्षण के लिए भी सुख पहुँचाना चाहती हो तो उनका उदन्त न छेड़ क्योंकि उनको सुनकर इसकी मूर्च्छा भंग हो जावेगी; मूर्च्छा में तो कुछ देर के लिए शान्ति भी मिलती है। हे सखी! तू कोई और ही चर्चा चला जिससे कि यह कुछ देर के लिये कृष्ण को भूल जाय। ‘प्रत्याहृत्य मुनिः क्षणं विषयतो यस्मिन् मनोधित्सति, योगीन्द्र, मुनीन्द्र भी यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा एवं समाधि के द्वारा संसार से मन को हटा कर भगवत् चरणों में लगाने का सतत प्रयास करते हैं परन्तु ये प्रेमरस पगी गोपालियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को भूलकर एक क्षण के लिए भी उनके विप्रयोग-जन्य दारुण-दाह से शान्ति पाना चाहती हैं। ‘कविभिरीड़ितं’ व्यास, वशिष्ठादिक महर्षिगण भी देव-भोग्य अमृत एवं मोक्षरूप अमृत, दोनों का ही वर्णन नहीं करते क्योंकि ज्ञानी को मोक्ष में स्पृहा नहीं रह जाती। ‘तत्परं पुरुषरख्याते गुर्णवैतृष्ण्यम्’[2]अर्थात पुरुष-साक्षात्कार से गुणों में वितृष्णा हो जाती है। तात्पर्य कि ‘सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिर्हेयपक्षे वत्र्तते’ सत्त्वपृरुषान्यताख्याति रूप जो सर्वोत्कृष्ट सत्त्व-परिणाम है वह भी हेय-पद्वा में हो जाता है क्योंकि शक्ति अपरिणामिनी, अप्रतिसंक्रमण शीला, नित्या, शुद्धा एवं शान्ता है एतावता ‘गुणवैतृष्ण्यं’ गुणों से भी वितृष्णा हो जाती है। ‘निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद् भवौषधात् श्रोत्रमनोऽभिरामात्। |