गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 9अर्थात, निवृत्त हो गई तृष्ण, आशा, आकांक्षा, लालसा जिन लोगों की, जो आप्तकाम, आत्माराम, पूर्णकाम, परम निष्काम है। ऐसे मुक्त पुरुष भी आपके गुण-गण का गान करते हैं। भगवत्कथा-अमृत इस भवरूपी रोग की अचूक महौषध है ‘श्रोत्रमनोभिरामात्’ ‘श्रोत्रं मनश्च अभिरमयति इति’ यह श्रोत्र और मन दोनों को आनन्द देने वाली है ‘निवृत्ततर्षैरुपगीयमानात्’ अर्थात् वीतराग, वितृष्ण ज्ञानियों द्वारा उपगीयमान एवं मन व कानों को आनन्द देने वाला महौषण रूप जो भगवद्-गुणानुवाद है उससे किस को अपराग हो सकता है? ‘पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात्। अपगताशुक् यस्मात् स अपशुक् तंहन्तियः सः। अर्थात्, जो शोक-मोहातीत आत्मा को हनन करने वाले आत्मघाती है अथवा जो ब्रह्मविद् वरिष्ठ जन के हत्याजनित पाप से लिप्त है, ऐसे ही किसी अपशुघ्न का भगवत् कथामृत से अनुराग नहीं होता; ‘श्रवणवत अस को जगमाहीं। जाहि न रघुपति कथा सुहाहीं।’ संसार में ऐसा कौन है जिसको भगवत् कथामृत न सुहाता हो। पशवो हन्यन्ते अनेन इति पशुघ्नं शष्कं काष्ठं’ हृदयहीन, शुष्क काष्ठवत् हृदय एवं कर्ण-कुहरों से रहित व्यक्ति के लिए ही भगवत् कथामृत से अपराग सम्भव है। भगवत-कथामृत सबके लिए परमानन्द दायक है - ‘सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु विषई। लहहिं भगति गति संपति नई। अर्थात, विरक्त मुमुक्षु को भी भगवत्-कथामृत श्रवण से भक्ति एवं मुक्ति मिलती है और ‘जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं।। विषयी, सकाम प्राणी भी भगवत-कथामृत श्रवण से इहलोक में उत्तमोत्तम भोग का सम्पादन करता हुआ अन्त-काल में उत्तम सद्गति को प्राप्त होता है। |