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गोपी गीत -करपात्री महाराज
गोपी गीत 9
भक्त तो मानता है-
‘मोहे इतनी जान भली
ठाकुर श्री व्रजराज रंगीलो, ठकुरानी वृषभान लली।’
तात्पर्य कि भगवत-प्रीति के उपयुक्त ज्ञान ही वांछित है क्योंकि
‘जाने बिनु न होई परतीती। बिनु परतीति होई नहीं प्रीती।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।’[1]
मोक्ष भी अमृत कहा जाता है। ‘तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यते यनाय। ब्रह्मविदाप्नोति परम्। तमेव विदित्वा अमृत इह भवति।’ ‘अमृतत्त्वस्यतु नाशास्ति वित्तेन’ ‘एतद् अभयं अमृतं एतद् ब्रह्म’ आदि स्थलों में अमृत शब्द से मोक्ष ही निर्देशित होता है। मोक्ष रूपी अमृत संसार-सन्ताप का नाश कर देता है। गोपाङनाएँ कह रही हैं, हे सखे। देवभोग्य अमृत रोगादि दोष एवं महा सन्तापों का नाश कर देता है परन्तु आपका कथामृत तो दोष के साथ ही साथ संसार के महा संतापों का नाश कर देता है। अतः हम आपके विप्रयोग-जन्य दारुण ताप से विदग्ध होती हुई भी मृत्यु को प्राप्त नहीं हो पा रही हैं। हे सखे! जिसका हमने अन्तःकरण, अन्तरात्मा, रोम-रोम से आलिंगन-परिरंभण किया उसकी केवल कथा सुनकर हमारी वही दशा होती है जो तप्त-लौहपात्र में पड़े हुए जलबिनदु की होती है। ‘तप्ते लौह पात्रे यथा जीवनं जलं निक्षिप्तं सत् तत्क्षणम् विलीयते।’ जैसे तप्त -लौह पात्र में पड़ा हुआ जल-बिन्दु तड़फड़ा कर तत्क्षण विनष्ट हो जाता है वैसे ही, आपके न रहने पर आपकी केवल कथामात्र सुनकर हमको भी तड़फड़हट होती है तथापि हम मर नहीं पाती क्योंकि आपकी कथा ही अमृत है।
‘सन्त्यज सखि तदुदंतं यदि सुखलवमपि समीहसे सख्याः।
स्मारय किमपि तदितरद् विस्मारय हन्त मोहनं मनसः।।’
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