गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 9‘श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः।’[1] तस्माद भारत सर्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः।’[2] संसार में यों तो श्रोतव्य, मन्तव्य, निदिध्यासितव्य का पारावार नहीं है, हे राजन्! एकमात्र सर्वात्मा हरि ही सर्वश्रेष्ठ श्रोतव्य, कीर्तितव्य, स्मर्तव्य तत्त्व है अतः सर्वतो भावेन, सदा सर्वदा उन्हीं का श्रवण, मनन एवं विचार करना ही जीवन का सार है अन्यथा जीवन का अपव्यय होता है जो व्यर्थ है। गोपाङनाएँ कह रही हैं कि हे सखे! मरण के दारुण दुःख से भी कोटि-गुणाधिक आपके विप्रयोग-जन्य जीव्रताप को सहन करती हुई हमको इन भूरि-दाताओं ने आपका कथामृत सुना-सुना कर जिला रखा है। हे सखे! ऐसा नहीं है कि हमें आपके चरणों में प्रेम नहीं है। आपके कथामृत श्रवण से जीवन-यापन करने वाली हम बनिताओं के लिए आप अवश्य ही अपने जलरूहानन के मधुर अधामृत रूप महौषध को कृपा कर प्रदान करें। हे सखे! आपके विप्रयोग-जन्य सन्तान से दग्ध होते हुए भी हम जीवित हैं यही हमारा कलंक है। हमारे इस कलंक का, हमारे इस जीवन का रहस्य आपका कथामृत है जो संतप्त जीवों को जीवन प्रदान करने वाला है। ब्रह्मा जी कह रहे हैं:- ‘ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम। अर्थात, जो भक्त जन ज्ञान में तनितक भी प्रयास न कर केवल तुम्हारी कथा-सुधा को नमन करते हैं, कानों से सुनी हुई तुम्हारी कथा का मनसा-वाचा सम्मान करते हैं वे मुक्ति पद के दायभागी होते हैं। |