गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6जो प्राणों के प्राण, सर्वान्तर्यामी, सर्वसखा, सर्वप्राणों परम-प्रेमास्पद, विश्व-नियामक है वही ‘योषितां वधे वीरो भवेत्’ कहलाये तो निश्चय ही इसमें उनकी मानहानि ही होगी। अतः हे सखे! हम तो आपके हितार्थ ही आपके प्रति हितोपदेश कर रही हैं। आपका अनन्त यश दिग्दिगन्त में विस्तीर्ण हो रहा है; आप के इस यश की हानि करेगी, साथ ही अपयश का विस्तार होगा इस आशंका से ही हम आपके प्रति हितोपदेश कर रही हैं। कोई स्वयं कितना ही विपद्-ग्रस्त क्यों न हों अपने सखा के प्रति तो शुभ-कामना ही करता है; अतः हम अत्यन्त संतप्त हो मरण समीप पहुँच रही हैं परन्तु आपकी तो कल्याण-कामना ही करती हैं क्योंकि आप हमारे सखा हैं। हम तो जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर, कल्प-कल्पान्तर से दुःख भोगते ही आ रहे हैं; अतः हम तो दुःख-भोग के अभ्यासी हैं, हमको तो केवल चिन्ता आपके विमल-यश-हानि की है। ‘मम हृदय प्रभु भवन तोरा। तहं आयी बसे बहुचोरा।। हे प्रभुः हमारा हृदय आपका निकेतन है तथापि काम, क्रोध, मद, लोभ, मोहादि अनेक चोर उसमें प्रवेश कर गये हैं; अतः मुझको तो आपके अपयश की ही चिन्ता सता रही है। एक कथा है; कर्तिवीर्य नामक एक राजा था। महात्मा दत्तात्रेय का शिष्यत्व ग्रहण कर कर्तिवीर्य ने योगाभ्यास किया; इस अभ्यास के द्वारा उन्होंने प्राणियों के मनोविकार जानने की योग्यता प्राप्त कर ली। ‘अकार्यचिन्तासमकालमेव प्रादुर्भावश्चापधरः पुरस्तात्’ किसी भी व्यक्ति के मन से अकर्म-कर्म की भावना जागृत होते ही महाराज कर्तिवीर्य अपराधी को दण्ड देने तत्क्षण पहुँच जाते। जैसे इन्द्रादि देवगण योगबल से ही अनेकानेक यज्ञ-स्थलों में एक कालावच्छेदेन एक काल में ही पहुँच जाते हैं वैसे ही महाराज कर्तिवीर्य भी योगाभ्यास द्वारा प्राणियों के मन को जानकर अपराध-कर्म होने ही नहीं देते थे। प्राणी मात्र के शुभाशुभ संकल्प पर नियंत्रण रखना किसी लौकिक राजा के लिये सम्भव नहीं; ईश्वर ही प्राणी मात्र का अन्तर्यामी एवं प्रेरक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विनयपत्रिका