गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 249

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 6

‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारूढ़ानि मायया।।’[1]

अर्थात प्राणी-मात्र के मन, बुद्धि, अहंकार, अंतरात्मा पर पूर्ण आधिपत्य रखने वाला ही ईश्वर है। एतावता ईश्वर ही प्राणी के सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्म का प्रेरक है।
गोपांगनाएँ कह रही हैं कि हे सखे! हम आपकी ‘किंकरी’ हैं। ‘किंचित् किमपि अनिर्वचनीयं सुखं करोति इति किंकरी’। अद्भुत सुख देने वाली ही ‘किंकरी’ हैं। कई सुख द्वैत-प्रधान हैं, उपासना हेतु उपास्य एवं उपासक दोनों ही समानतः अनिवार्य है। जिस भाव से भक्त भगवान् का भजन करता है उसी भाव से उपास्य द्वारा अनुसरण होने पर ही उपासना सम्भव हो सकती है। उपासना को भी वस्तुतः रसास्वादन उपास्य-स्वरूप के प्राकट्य में ही सम्भव है। गोपांगनाओं के सम्पूर्ण कर्म ही उपासना हेतु हैं। अपने मदनमोहन, श्यामसुन्दर को सुख पहुँचाने हेतु ही वे दिव्य भूषण, वसन, अलंकार एवं अंगरागादि को धारण करती हैं। एतद् साध्य सुख भी भगवदभिमुख होने पर ही सम्भव हो सकता है।

उपनिषद की दृष्टि से व्रज का अर्थ ही गोष्ठ है। श्रुति रूपा गो का निवास स्थान ही गोष्ठ है। अनादि अपौरुषेय वेद-राशि ही गोष्ठ किंवा व्रज है। वैदिक मंडली व्रजजन हैं। पूर्व श्लोक में ‘शिरसि घेहि नः श्रीकरग्रहं’ का अर्थ किया गया है। ‘नः अस्मांक श्रुतीनां शिरसि उपनिषद् भागे’। अर्थात् उपनिषद् भाग में मोक्ष रूपी लक्ष्मी का सम्पादन करने वाले ग्रह, आग्रह को स्थापित करें। तात्पर्य कि अकारण-करुण, करुणा-वरुणालय, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान प्रभु के अनुग्रह से ही सौभाग्यशाली जनों को उपनिषद्-भाग में दृढ़ आग्रह, अभिनिवेश उद्बुद्ध होता है। उस दृढ़ आग्रह से ही मोक्ष रूप लक्ष्मी का सम्पादन होता है। ‘लब्ध ग्रहस्य वेद भागे’ उपनिषद् भाग में दृढ़ आग्रह प्राप्त प्रामाण्य-वृद्धि आस्तिक-शिरोमणिजन हो व्रज जन हैं। जनन-मराणाविच्छेदलक्षणा संसृति ही आर्ति है। ‘जन्मत मरत दुस्सह दुःख होई।’ सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान प्रभु ही वैदिक शास्त्रानुयायी साधक जन, व्रज जनों की संसार-परम्परा रूप आर्ति के हर्ता है अतः ‘व्रजजनार्तिहन् हैं।’ ‘निज जन स्मयध्वंसनस्मित’ भगवान् अपने स्मित से ही प्राणी के गर्वोपलक्षित, स्मयोपलक्षित विविध प्रकार के दोषों का ध्वंस कर देते हैं। ‘हासो जनोन्मादकरी च माया।’[2]भगवान् का हास-प्रहार ही माया है। प्रहास का संकोच ही स्मित है। माया का प्रवर्तन न होना ही माया का संकोच है। अतः भक्त प्रार्थना करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री. भ. गी. 18। 61
  2. श्री. भा. 2। 1। 31

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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