गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। अर्थात प्राणी-मात्र के मन, बुद्धि, अहंकार, अंतरात्मा पर पूर्ण आधिपत्य रखने वाला ही ईश्वर है। एतावता ईश्वर ही प्राणी के सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्म का प्रेरक है। उपनिषद की दृष्टि से व्रज का अर्थ ही गोष्ठ है। श्रुति रूपा गो का निवास स्थान ही गोष्ठ है। अनादि अपौरुषेय वेद-राशि ही गोष्ठ किंवा व्रज है। वैदिक मंडली व्रजजन हैं। पूर्व श्लोक में ‘शिरसि घेहि नः श्रीकरग्रहं’ का अर्थ किया गया है। ‘नः अस्मांक श्रुतीनां शिरसि उपनिषद् भागे’। अर्थात् उपनिषद् भाग में मोक्ष रूपी लक्ष्मी का सम्पादन करने वाले ग्रह, आग्रह को स्थापित करें। तात्पर्य कि अकारण-करुण, करुणा-वरुणालय, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान प्रभु के अनुग्रह से ही सौभाग्यशाली जनों को उपनिषद्-भाग में दृढ़ आग्रह, अभिनिवेश उद्बुद्ध होता है। उस दृढ़ आग्रह से ही मोक्ष रूप लक्ष्मी का सम्पादन होता है। ‘लब्ध ग्रहस्य वेद भागे’ उपनिषद् भाग में दृढ़ आग्रह प्राप्त प्रामाण्य-वृद्धि आस्तिक-शिरोमणिजन हो व्रज जन हैं। जनन-मराणाविच्छेदलक्षणा संसृति ही आर्ति है। ‘जन्मत मरत दुस्सह दुःख होई।’ सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान प्रभु ही वैदिक शास्त्रानुयायी साधक जन, व्रज जनों की संसार-परम्परा रूप आर्ति के हर्ता है अतः ‘व्रजजनार्तिहन् हैं।’ ‘निज जन स्मयध्वंसनस्मित’ भगवान् अपने स्मित से ही प्राणी के गर्वोपलक्षित, स्मयोपलक्षित विविध प्रकार के दोषों का ध्वंस कर देते हैं। ‘हासो जनोन्मादकरी च माया।’[2]भगवान् का हास-प्रहार ही माया है। प्रहास का संकोच ही स्मित है। माया का प्रवर्तन न होना ही माया का संकोच है। अतः भक्त प्रार्थना करता है। |