गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 4‘जोग जुगति तप मन्त्र प्रभाऊ। फलइ तबहि जब करिअ दुराऊ।।’[1] योग-युक्ति, मन्त्र-तप आदि भी परोक्ष रहने पर ही प्रभावशील होते हैं। वेदविज्ञ सम्पूर्ण वेदों का उच्च स्वर से पाठ करते हुए भी गायत्री-मन्त्र के प्रसंग में चुप हो जाते हैं, उपांशु-जप करने लगते हैं। ‘मत्रि-गुप्तपरिभाषणे।’ वेद एवं स्तुति आदि का स्फुट स्वर से ही पाठ प्रभावशील है, पर मन्त्र का उपांशुजप ही महत्त्वपूर्ण है। ‘राधा’ परमानन्द कृष्णचन्द्र का गुप्त मन्त्र है; शुकदेव भी ‘राधा’ मन्त्र का ही जप करते हैं। सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान्, अखण्ड-ब्रह्माण्ड-नायक परात्पर, परब्रह्म का गुप्त मन्त्र होने के कारण ‘राधा-मन्त्र’ अत्यन्त गोपनीय है। कथा-प्रसंगानुकूल गोपांगना कह रही हैं-‘इति न जानीमः’ अर्थात् हे सखे! हम निर्णय नहीं कर पा रही हैं कि आप कौन हैं? हम प्रेयसी जनों के घनीभूत ताप से आप द्रवीभूत नहीं होते अतः आप गोपिकानन्दन भी नहीं हो सकते क्योंकि गोपिका यशोदा तो अन्य के किन्चिन्मात्र दुःख से द्रवीभूत हो जाने वाली हैं। साथ ही वे दयामयी हमारी रक्षा हेतु सतत प्रयासशीला भी हैं। यदि आप गोपिकानन्दन होते तो अवश्य ही अपनी माता के दयामय स्वभाव का लेशमात्र प्रभाव आप पर भी पड़ा होता। आपके विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से हम दग्ध हो रही हैं यह जानकर भी आप हमारे रक्षा हेतु प्रकट नहीं होते अतः ऐसा प्रतीत होता है कि ‘विखनसार्थितो विश्वगुप्तये’ विखनसा, ब्रह्मा द्वारा प्रार्थित होकर विश्वरक्षा हेतु भी आपका आविर्भाव नहीं हुआ है। ‘सख उदेयिवान् सात्वतां कुले’ हे सखे, आपका आविर्भाव सात्वत्, भक्त-कुल में भी नहीं हुआ है। भक्त सत्त्वगुणी होता है; यदि आप भक्त-कुल में प्रादुर्भूत हुए होते तो निश्चय ही आप इतने कठोर, निर्दय एवं निष्करुण नहीं हो सकते; हिंसा, परद्रव्यहरण एवं परदारहरण आदि क्रूर गुण आपमें नहीं आ पाते। यदि आप सर्वद्रष्टा, सर्वसाक्षी, सर्वान्तर्यामी आदि आत्मदृक होते तो निमिषमात्र के लिए भी आपका वियोग क्योंकर सह्य हो सकता? अन्तरात्मा से निमिषपर्यन्त विप्रयोग भी प्राणिमात्र के लिये असह्य है। अतः हे सखे! अपने प्राकट्य द्वारा हमारा सर्वप्रकारेण सशोधन करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस, बाल का. 167। 4