गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 257

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

तेरहवाँ अध्याय

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ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै: ॥4॥

यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है तथा वेदों की ऋचाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभागपूर्वक कहा गया है और युक्ति युक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।

महाभूतान्यहकारों बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचरा: ॥5॥

मूल प्रकृति और समष्टि बुद्धि (महतत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय-यही (चौबीस तत्त्वों वाला) क्षेत्र है।

व्याख्या-पाँच महाभूत, एक अहंकार और एक बुद्धि- ये सात ‘प्रकृति-विकृति’ हैं, मूल प्रकृति केवल ‘प्रकृति’ है और दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय- ये सोलह केवल ‘विकृति’ हैं। इस तरह इन चौबीस तत्त्वों के समुदाय का नाम ‘क्षेत्र’ है। इसी का एक तुच्छ अंश यह मनुष्य शरीर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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