गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 104

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

पाँचवाँ अध्याय

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सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥1॥

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! आप कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों साधनों में जो एक निश्चितरूप से कल्याणकारक हो, उसको मेरे लिये कहिये।

व्याख्या- चौथे अध्याय के अन्त में भगवान् ने अर्जुन को युद्ध के लिये खड़ा होने की आज्ञा दी थी। परन्तु यहाँ अर्जुन के प्रश्न से पता लगता है कि उनके भीतर युद्ध करने अथवा न करने की और विजय प्राप्त करने अथवा न करने की अपेक्षा भी ‘मेरा कल्याण कैसे हो’- इसकी विशेष चिन्ता है। उनके अन्तःकरण में युद्ध की तथा विजय प्राप्त करने की अपेक्षा भी कल्याण का अधिक महत्त्व है। अतः प्रस्तुत श्लोक से पहले भी अर्जुन दो बार अपने कल्याण की बात पूछ चुके हैं[1]

सन्न्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगी विशिष्यते ॥2॥

श्रीभगवान बोले- संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग दोनों ही कल्याण करने वाले हैं। परन्तु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास (सांख्ययोग) से कर्मयोग श्रेष्ठ है।

व्याख्या- भगवान कहते हैं कि यद्यपि सांख्ययोग और कर्मयोग- दोनों से ही मनुष्य का कल्याण हो जाता है, तथापि कर्मयोग के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करना ही श्रेष्ठ है। कर्मयोग सांख्ययोग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ तथा सुगम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 2।7, 3।2)

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