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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
बारहवाँ अध्याय
अर्जुन उवाच: व्याख्या- यद्यपि ज्ञान और भक्ति- दोनों ही मनुष्य का दुःख दूर करने में समान हैं, तथापि ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की अधिक महिमा है। ज्ञान से तो अखण्ड रस की प्राप्ति होती है, पर भक्ति से अनन्त रस (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम)- की प्राप्ति होती है। जैसे संसार में किसी वस्तु का ज्ञान होता है कि ‘ये रुपये हैं’ आदि, तो इस ज्ञान से केवल अज्ञान (अनजानपन) मिट जाता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान से केवल अज्ञान मिटताा है। अज्ञान मिटने से दुःख, भय, जन्म-मरण-ये सब मिट जाते हैं। परन्तु भक्ति ज्ञान से भी विलक्षण है। जैसे ‘ये रुपये हैं’ यह ज्ञान हो जाने पर अनजानपना मिट जाता है, पर उनको पाने का लोभ हो जाय कि ‘और मिले, और मिले’ तो उसमें एक विशेष रस आता है। वस्तु के आकर्षण में जो रस है वह रस वस्तु के ज्ञान में नहीं है। ऐसे ही भक्ति में एक विशेष रस है। ज्ञान का रस तो स्वयं लेता है, पर प्रेम का रस भगवान लेते हैं। भगवान ज्ञान के भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेम के भूखे हैं। अतः ‘प्रेम’ मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्म साक्षात्कार, कैवल्य से भी आगे की वस्तु है! ज्ञानमार्ग में सत और असत दोनों की मान्यता (विवेक) साथ-साथ रहने से असत की अति सूक्ष्म सत्ता अर्थात सूक्ष्म अहम दूर तक साथ रहता है। यह सूक्ष्म अहम मुक्त होने पर भी रहता है। इस सूक्ष्म अहम के रहने से पुनर्जन्म तो नहीं होता, पर भगवान से अभिन्नता नहीं होती और दार्शनिकों में तथा उनके दर्शनों में परस्पर मतभेद रहता है। परन्तु प्रेम का उदय होने पर भगवान से अभिन्नता हो जाती है तथा सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद मिट जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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