गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 330

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

सत्रहवाँ अध्याय

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अर्जुन उवाच-
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम: ॥1॥

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक (देता आदि का) पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी-तामसी?

व्याख्या- दैवी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के भाव, आचरण और विचार ‘सात्त्विक’ होते हैं और आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के भाव, आचरण और विचार ‘राजस-तामस’ होते हैं। भाव, आचरण और विचार के अनुसार ही मनुष्य की निष्ठा (स्थिति) होती है।

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ॥2॥

श्रीभगवान बोले- मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और-तामसी-ऐसे तीन तरह की ही होती है, उसको (तुम मुझसे) सुनो।

व्याख्या- यद्यपि अर्जुन ने निष्ठा को जानने के लिये प्रश्न किया था, तथापि भगवान उसका उत्तर श्रद्धा को लेकर देते हैं; क्योंकि श्रद्धा के अनुसार ही निष्ठा होती है।

शास्त्रविधि को न जानने पर भी प्रत्येक मनुष्य में स्वभाव से उत्पन्न होने वाली स्वतःसिद्ध श्रद्धा तो रहती है। इसलिये भगवान उस श्रद्धा के भेद बताते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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