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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
तेरहवाँ अध्याय
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृति: । व्याख्या- पाँचवें श्लोक में भगवान ने समष्टि संसार का वर्णन किया और यहाँ व्यष्टि शरीर के विकारों का वर्णन करते हैं। क्षेत्र के साथ सम्बन्ध रखने से ही इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख आदि विकार क्षेत्रज्ञ में होते हैं[1]ये सभी विकार तादात्म्य (चिज्जड़ग्रन्थि)-के जड़-अंश में रहते हैं। यहाँ भगवान ने चौबीस तत्त्वों वाले शरीर को तथा उसके सात विकारों को ‘एतत्’ (यह) कहा है। तात्पर्य है कि स्वयं क्षेत्र से मिला हुआ नहीं है, प्रत्युत उससे सर्वथा अलग है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण-तीनों ही शरीर ‘एतत्’ पद के अन्तर्गत होने से हमारा स्वरूप नही है। यहाँ विशेष ध्यान देने की बात है कि जब अहंकार का कारण ‘महतत्त्व’ और ‘मूल प्रकृति’ को भी ‘एतत्’ शब्द से कह दिया, तो फिर अहंकार के ‘एतत्’ होने में कहना ही क्या है! अहम से समीप महतत्त्व है और महतत्त्व से समीप प्रकृति है, वह प्रकृति भी ‘एतत् क्षेत्रम्’ में है। तात्पर्य है कि अहम हमारा स्वरूप है ही नहीं। जो साधक स्वयं को और अहम (क्षेत्र)-को अलग-अलग जान लेता है, उसका फिर कभी जन्म नहीं होता और वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है [2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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