गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 82

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥1॥

श्रीभगवान् बोले- मैंने ही अविनाशी योग (कर्मयोग) को सूर्य से कहा था। फिर सूर्य ने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकु से कहा।

व्याख्या- पूर्वपक्ष-अव्यय (नित्य) तो साध्य होता है, साधन कैसे अव्यय होगा?

उत्तरपक्ष- साधक ही साधन होकर साध्य में लीन होता है। अतः साधक, साधन और साध्य-तीनों ही एक होने से अव्यय हैं; परन्तु मोह के कारण तीनों अलग-अलग दीखते हैं।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: ।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप ॥2॥

हे परन्तप! इस तरह परम्परा से प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस मनुष्यलोक में लुप्तप्राय हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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