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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौदहवाँ अध्याय
ब्रह्माणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । व्याख्या- ‘ब्रह्म तथा अविनाशी अमृत का आश्रय मैं हूँ’- यह निर्गुण-निराकार की तथा ‘ज्ञानयोग’ की बात है। ‘शाश्वत धर्म का आश्रय मैं हूँ’- यह सगुण-साकार की तथा ‘कर्मयोग’ की बात है। ‘ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं हूँ’- यह सगुण-निराकार की तथा ‘ध्यानयोग’ की बात है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरी (सगुण-साकार की) उपासना करने से, मेरा आश्रय लेने से भक्त को ज्ञानयोग, कर्मयोग और ध्यानयोग-तीनों की सिद्धि हो जाती है। कारण कि समग्र भगवान के एक अंश में सब कुछ विद्यमान है[1]। भगवान ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि सबकी प्रतिष्ठा (आश्रय) हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 10।42)
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