गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 297

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौदहवाँ अध्याय

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ब्रह्माणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥27॥

क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ।

व्याख्या- ‘ब्रह्म तथा अविनाशी अमृत का आश्रय मैं हूँ’- यह निर्गुण-निराकार की तथा ‘ज्ञानयोग’ की बात है। ‘शाश्वत धर्म का आश्रय मैं हूँ’- यह सगुण-साकार की तथा ‘कर्मयोग’ की बात है। ‘ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं हूँ’- यह सगुण-निराकार की तथा ‘ध्यानयोग’ की बात है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरी (सगुण-साकार की) उपासना करने से, मेरा आश्रय लेने से भक्त को ज्ञानयोग, कर्मयोग और ध्यानयोग-तीनों की सिद्धि हो जाती है। कारण कि समग्र भगवान के एक अंश में सब कुछ विद्यमान है[1]। भगवान ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि सबकी प्रतिष्ठा (आश्रय) हैं।

ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः।।14।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 10।42)

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