गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 345

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

अठारहवाँ अध्याय

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अर्जुन उवाच-
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥1॥

अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे हृषीकेश! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ।

व्याख्या- विवेक द्वारा प्रकृति से अपना सर्वा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने का नाम ‘संन्यास’ (सांख्ययोग) है, और कर्म तथा फल सक्की आति छोड़ने का नाम ‘त्याग’ (कर्मयोग) है।

श्रीभगवानुवाच-
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा: ॥2॥

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण: ।
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥3॥

श्रीभगवान बोले- कई विद्वान् काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं और कई विद्वान सम्पूर्ण कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्मों को दोष की तरह छोड़ देना चाहिये और कई विद्वान ऐसा कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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