गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 18

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

दूसरा अध्याय

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तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन: ॥1॥

संजय बोले- वैसी कायरता से व्याप्त हुए उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान मधुसूदन यह (आगे कहे जाने वाले) वचन बोले।

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥2॥

श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! इस विषम अवसर पर तुम्हें यह कायरता कहाँ से प्राप्त हुई, जिस का कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्ग को देने वाली नहीं है और कीर्ति करने वाली भी नहीं है।

क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ॥3॥

हे पृथानन्दन अर्जुन! इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारे में यह उचित नहीं है। परन्तप! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके (युद्ध के लिये) खड़े हो जाओ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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