गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 186

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

नवाँ अध्याय

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पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ॥26॥

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु) को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मु झमें तल्लीन हुए अन्त करण वाले भक्त के द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूँ अर्थात स्वीकार कर लेता हूँ।

व्याख्या- देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है; परन्तु भगवान् की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवानकी उपासना में प्रेम की, अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं। भगवान भावग्रा ही हैं, क्रियाग्राही नहीं।

जैसे भोला बालक जो कुछ हाथ में आये, उसको मुँह में डाल लेता है, ऐसे ही भोले भक्त भगवान को जो भी अर्पण करते हैं, उसे भगवान भी भोले बनकर खा लेते हैं। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’[1]; जैसे- विदुरानी ने केले का छिलका दिया तो भगवान ने उसे ही खा लिया!

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥27॥

हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।

व्याख्या- ज्ञानयोगी तो संसार के साथ माने हुए सम्बन्ध का त्याग करता है, पर भक्त एक भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता मानता ही नहीं। इसलिये ज्ञानयोगी पदार्थ तथा क्रिया का त्याग करता है, और भक्त पदार्थ तथा क्रिया को भगवान के अर्पण करता है अर्थात उनको अपना न मानकर भगवान का और भगवत्स्वरूप मानता है। वास्तव में भक्त अपने-आप को ही भगवान के समर्पित कर देता है। स्वयं समर्पित होने से उसके द्वारा होने वाली सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक क्रियाएँ भी स्वाभाविक भगवान के समर्पित हो जाती हैं।

पूर्वपक्ष- यदि कोई निषिद्ध क्रिया करके उसे भगवान के अर्पित कर देत तो?

उत्तरपक्ष- वही वस्तु या क्रिया भगवान के अर्पित की जाती है, जो भगवान के अनुकूल, उनके आज्ञानुसार होती है। जिस भक्त का भगवान के प्रति अर्पण करने का भाव है, उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होगी और न निषिद्ध क्रिया अर्पित ही होगी। भगवान को दिया हुआ अनन्त गुणा होकर मिलता है। यदि कोई निषिद्ध क्रिया भगवान के अर्पित करेगा तो उसका फल भी दण्डरूप से अनन्त गुणा होकर मिलेगा!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 4।11)

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