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गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
सातवाँ अध्याय
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । व्याख्या- अनन्त ब्रह्माण्डों में स्थावर-जंगम, थलचर-जलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उद्भिज्ज, मनुष्य, देवता, गन्धर्व, पितर, पशु, कीट, पतंग आदि जितने भी प्राणी देखने-सुनने-पढ़ने में आते हैं, वे सब अपरा और परा-इन दोनों के माने हुए संयोग सेही उत्पन्न होते हैं। अपरा और परा का संयोग ही सम्पूर्ण संसार का बीज है। मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ- इससे भगवान का तात्पर्य है कि मैं ही सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाला हूँ और मैं ही उत्पन्न होने वाला हूँ, मैं ही नाश करने वाला हूँ और मैं ही नष्ट होने वाला हूँ; क्योंकि मेरे सिवाय संसार क अन्य कोई भी कारण तथा कार्य नहीं है। मैं ही इसका निमित्त और उपादान कारण हूँ। भगवान् ही जगद् रूप से प्रकट हुए हैं। यह जगत भगवान का आदि अवतार है- ‘आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य’[1]। आदि अवतार होने से जगत नहीं है, केवल भगवान ही हैं। मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । व्याख्या- जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोयी हुई हों तो उनमें सूत के सिवाय अन्य कुछ नहीं है, ऐसे ही मणिरूप अपरा प्रकृति और धागारूप परा प्रकृति- दोनों में एक भगवान ही परिपूर्ण हैं अर्थात एक भगवान के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। तात्त्विक दृष्टि से देखें तो न धागा है, न मणियाँ हैं, प्रत्युत एक सूत (रुई) ही है। इसी तरह न परा है, न अपरा है, प्रत्युत एक परमात्मा ही हैं। इस श्लोक में आये ‘मत्तः परतरं नान्यत्’ पदों से आरम्भ करके बारहवें श्लोक के ‘मत्त ऐवेति तान्विद्धि’ पदों तक भगवान ने यही सिद्ध किया है कि मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है, सब कुछ मैं ही हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 2।6।41)
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